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________________ विरल विभूतियों में एक राष्ट्रसन्त मुनि श्री नगराज जी डी० लिट मुनि श्री अनेक होते हैं, आचार्य भी अनेक होते हैं, पर ऐसे मनि व आचार्य विरल होते हैं जो जीवन में निर्माण का नया इतिहास गढ़ देते हैं। ऐसी ही विरल विभूतियों में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी एक हैं । आपके जीवन में माधना व मजन का मणिकांचन योग है। मैंने आपको बहुत निकट से जाना. देखा एवं परखा है । ऐसे नाना संम्मरण हैं, जो उनकी जीवनगत विशेषताओं के परिचायक हैं। मैं मानता हूं, मुनियों एवं आचार्यों में आप प्रथम हैं, जो श्वेताम्बर समाज में घुले-मिले व जाने-माने हैं। सन् १९६६ की बात है। मेरा व उनका चातुर्मास जयपुर में था । श्वेतांबर मूर्तिपूजक ममाज के मनिवर श्री विशाल विजय जी का चातुर्मास भी वहीं था। सामूहिक प्रवचन का एक अभिनव प्रयोग हम सबने वहां किया। श्रावण मास के प्रारंभ से ही प्रति पखवाडे का दूसरा रविवार संयुक्त प्रवचन के लिए निश्चित कर लिया था। निर्धारित विषय पर श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी परम्पराओं का संयक्त प्रवचन किसी एक ही निर्धारित स्थान पर होता । जयपुर के पूरे जैन समाज में इस अभिनव प्रयोग की सन्द र प्रतित्रिया थी। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की विशेषता यह रही कि सभाओं में हम सब मनियों के साथ उन्होंने समान स्तर में बैठना मंजूर किया । मुझे ज्ञात है, दिगम्बर श्रावक समाज का यह आग्रह बराबर बना रहा कि आप आचार्य हैं, फिर मनियों के साथ एक स्तर से ही क्यों बैठ जाते हैं, पर आचार्य रत्न देशभूषण जी ने उन बातों की कोई परवाह नहीं की और वह अभिनव प्रयोग काफी समय तक चलता ही रहा । वे मिलने वालों को अपनी आत्मीयता में बांध लेते हैं, अपने प्रेम एवं अपनी उदारता से। जयपुर के पर्वतीय अंचल में मन्दिरों आदि का एक तीर्थ रूप निर्माण आपकी प्रेरणा से हो रहा था । आपने आग्रह किया कि किसी एक रविवार को आप लोग वहां चलें, मैं भी चलूंगा। चातुर्मास के अन्तिम दिनों में एक तथारूप कार्यक्रम रहा । जयपुर से ३.४ मील दू और पर्वतों की चढाई ! बड़ा आनन्द आया। पर्वत की चढ़ाई में वयोवृद्ध होते हुए भी हम सबसे आगे आप चल रहे थे। बीच-बीच में मझे सम्भालते भी कि आप तो पीछे रह गये ! और, मेरी बांह पकड़ कर मुझे आगे ले जाते । उस अनोखी पर्वतीय सुषमा में निर्मित व निर्मीयमाण प्रतीकों का साथ-साथ रह कर मुझे अवलोकन कराया। दोनों समाजों के सैकड़ों श्रावक बन्धु भी साथ थे। पर्वत की तलहटी में दिगम्बर जैन मन्दिर था, जो अपनी स्वर्ण-कला के लिए सुप्रसिद्ध है। वहां हम लोगों का प्रवचन हुआ। जयपुर के तेरापंथ समाज व दिगम्बर समाज का वह एक ऐतिहासिक मिलन था। सन् १९७१ से भारत की राजधानी दिल्ली में हमारे कई वर्षाकाल साथ-साथ हए । 'भगवान महावीर की २५००वीं निर्वाण जयन्ती की तैयारी का वह कार्यकाल था। वहां माननीय सशील मुनि जी आदि अनेक साध-संत थे ही। आपकी स्नेहशीलता से हेल-मेल इतना बढ़ गया था कि महावीर जयन्ती आदि पर्व तो सामूहिक रूप से मनाये ही जाते, पर अन्य परम्परागत कार्यक्रम भी सामहिक रूप से मनाये जाने लगे। प्रत्येक परम्परा सबको आमन्त्रित करती व सभी आचार्य, मनि वहां सहर्ष पहुंचते । इन सब कार्यक्रमों में आपका उत्साह समुल्लेखनीय ही रहता । पारस्परिक आत्मीयताएं इतनी सध गई थीं कि पारस्परिक घटना-प्रसंग भी सामहिकता ले लेते। आचार्य श्री तुलसी ने स्व० मुनि महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम' का चातुर्मास कलकत्ता का घोषित कर दिया जबकि उनका नाम 'राष्ट्रीय समिति से सम्बन्धित आचार्यों व मुनियों की परामर्श समिति में था और विगत दो वर्षों से २५०० वीं निर्वाण जयन्ती के कार्य को आगे बढ़ाने में हम सबके साथ थे । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने इस असामयिक निर्णय को सामूहिक सभाओं में चचित किया एवं पत्र व तार के माध्यम से अपनी राय आचार्य श्री तुलसी तक भी पहुंचाई। १२ अप्रैल १९७२ का दिन था। राष्ट्रीय समिति का प्रथम अधिवेशन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की अध्यक्षता में संसद् भवन में ही चार बजे होना था। जैन समाज में अपूर्व उल्लास था। चारों सभाओं के प्रतिनिधि सदस्य देश के कोने-कोने से दिल्ली पहुंच चुके थे । प्रातः लगभग ११ बजे एक व्याघात आया। प्रधानमंत्री भवन से सूचना मिली-दिगम्बर मुनि संसद् भवन में आयेंगे तो कालजयो व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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