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संयोजना
सम्यक्त्व चूड़ामणि आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज भारतवर्ष की परमकारुणिक अहिंसात्मक श्रमण संस्कृति की सर्वाधिक प्राचीन परम्परा के युगप्रमुख प्रतिनिधि हैं । मानव सभ्यता के विकास के प्रथम चरण में इस महनीय परम्परा का सूत्रपात जैन धर्म के आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने किया था जिसे कालान्तर में क्रमशः तेईस तीर्थंकरों ने अनुप्राणित किया-अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी। वैदिक साहित्य में भी भगवान् ऋषभदेव की स्तुति एवं अर्चा का अनेक प्रसंगों में गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है। पुरातात्विक दृष्टि से हड़प्पा, मोहन-जो-दाड़ो से प्राप्त कुछ मुहरों पर साधनारत दिगम्बर मुनियों की भुवनमोहिनी कायोत्सर्ग मुद्रा के दर्शन होते हैं। सिन्धु घाटी के अभिलेखों के महान् अध्येता एवं विश्लेषक श्री पी० आर० देशमुख के अनुसार जैनों के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का सिन्धु सभ्यता से सम्बन्ध रहा है। भारतीय इतिहास में सिन्धु घाटी की सभ्यता एवं संस्कृति से लेकर आज तक इस महनीय परम्परा का एक गौरवशाली शृंखलाबद्ध इतिहास मिलता है।
वर्तमान युग में आचार्यरत्न श्री श्री १०८ श्री देशभूषण जी महाराज जैन समाज के ज्योतिपुरुष, अप्रतिम उपसर्ग-विजेता और दिगम्बरत्व की जयध्वजा के रूप में परम आदर और श्रद्धा की दृष्टि से संपूजित हैं। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से उत्तरार्ध तक श्रमण सभ्यता एवं संस्कृति के उन्नयन में आप का ऐतिहासिक योगदान रहा है। विदेशी आक्रमणों, केन्द्रीय सत्ता के अभाव और विभिन्न राज्यों के शासकों की धर्मान्धता के कारण लुप्तप्राय दिगम्बर साधुओं की परम्परा को नया जीवन देने में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं श्रमणराज बहुश्रुत आचार्य श्री देशभूषण जी के योगदान को कौन विस्मृत कर सकता है ? इन दोनों महान् विभूतियों के सात्विक संकल्प, सतत साधना एवं तपश्चर्या के कारण ही दिगम्बरत्व को इस युग में पुन: सामाजिक एवं धार्मिक स्वीकृति मिल सकी है।
साहित्य-साधना के सचल तीर्थ, प्रज्ञा-पुरुष, अनन्त श्री विभूषित आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज को तपोनिधि परमपूज्य आचार्य जयकीति जी महाराज ने दिनांक ८ मार्च १९३६ को दिगम्बरी दीक्षा से श्रीमंडित किया था और तभी से आप अनथक, अपराजेय, अविचल भाव से जिन-शासन की प्रतिष्ठा और मानव-मात्र के कल्याण के लिए प्रयत्नशील हैं। ८ मार्च १९८७ को आपके दिगम्बर स्वरूप को धारण किये हुए इक्यावन वर्ष पूर्ण हो चुके हैं । विगत अनेक शताब्दियों में इतनी दीर्घ कालावधि तक दिगम्बरत्व का प्रचार-प्रसार और इसकी सामाजिक प्रतिष्ठा करने वाला अन्य कोई तपस्वी दृष्टिगत नहीं होता। इस दृष्टि से आपका ऐतिहासिक व्यक्तित्व स्पृहणीय, अनुकरणीय, वन्दनीय एवं अभिनन्दनीय है।
पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी वास्तव में देश के भूषण हैं । कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के सन्धिस्थल जिला बेलगांव (कर्नाटक) के कोथली नामक गांव में जन्म लेने वाले इस सन्त-प्रवर ने लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष की अनेक बार पद-यात्रा की है। आचार्यश्री के धार्मिक एवं आध्यात्मिक उपदेशामृत का लाखों व्यक्तियों ने लाभ उठाया है और उनकी निर्मल वाणी एवं विचारणा शक्ति से मानव-मात्र को ज्ञान, विवेक व शान्ति की प्राप्ति हुई है। इस निर्भीक सन्त ने आत्मा के अजर, अमर एवं सनातन स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए भारतीय जन-मानस को स्वतन्त्रता एवं जागरूकता का महामन्त्र दिया। वास्तव में आचार्यरत्न की सारगभित सारस्वत वाणी में भारतीय संस्कृति और दर्शन की सार्वभौम आध्यात्मिक चेतना के दर्शन होते हैं।
लोककल्याण के निमित्त निरन्तर तपश्चर्यारत और गतिशील धर्मचक्र के समान धर्मसभाओं में अपने उपदेशामृत से लाखों भव्य जीवों को उपकृत करने वाले आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज केवल जैन धर्म के ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण मानव जाति की भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक चेतना की परिशुद्धि के लिए मूर्तिमान तीर्थस्वरूप हैं। वैचारिक क्रान्ति और कल्याणकर उपदेश वाणी के उद्घोषक के रूप में आप अनासक्त कर्मयोगी और ज्ञान के दैदीप्यमान सूर्य हैं । अपनी ऊर्ध्वमुखी चेतना और प्रकाश-प्रेरित अनुभूति द्वारा आपने समग्र राष्ट्र को अप्रतिम वरदान के रूप में रचनात्मक आलोक से दीपित किया है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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