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के मुख की ओर एक बड़ा द्वार है। मुख्य द्वार पश्चिम की ओर है। इसके पीछे खुदाई का सुन्दर काम है। मन्दिर का मूल गर्भ-गृह वर्गाकार है। पहले खण्ड पर भी इसी तरह का मन्दिर है जिसमें चार प्रतिमाएं विराजमान हैं। इसकी चारों दिशाओं में भी चार द्वार हैं। दसरे खण्ड पर जाने के लिए अखण्ड पत्थर की बनी सीढ़ियाँ बड़ी अद्भुत हैं । पृथ्वी-तल के मन्दिर में प्रत्येक द्वार के आगे गढ़ मण्डप न होकर एक-एक लघु सभामण्डप है । मन्दिर के मुख्य मण्डप की ओर एक बड़ा मन्दिर है। प्रत्येक सभामण्डप के आगे एक-एक छोटा देवालय है । इस भांति चारों कोनों में मन्दिर हैं। इनके आगे चार गुम्बदों का समूह है जो चार सौ बीस स्तम्भों पर आधारित है। प्रत्येक समूह के मध्य गुम्बदों की ऊंचाई तीन मजिल जितनी है। सबसे बड़ा और प्रधान गुम्बद गर्भ-गृह के ऊपर है। मन्दिर के चारों
ओर ५६ देहरियां हैं जिन्हें पृथक-पृथक करने हेतु मध्य में कोई दीवार नहीं है । ये देहरियां अन्य प्रतिमाएं स्थापित करने हेतु छोटे मन्दिर के आकार की हैं। मन्दिर के उत्तर-पश्चिम की बड़ी देहरी में सम्मेदशिखर जी की खुदाई का काम है। एक शिला पर गिरनार
और शत्रुञ्जय की पहाड़ियों की खुदाई का काम है। मन्दिर के बाहर २३वें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा सर्प-देह में लिपटी हई, सहस्रफण युक्त, कायोत्सर्गावस्था में स्थित है । शत्र जय गिरनार पट्ट, नन्दीश्वर द्वीप पट्ट, सहस्रफण पार्श्वनाथ आदि धार्मिक महत्त्व के उल्लेखनीय शिल्पप्रतीक हैं ।।
इनके अलावा और भी कई स्थानों पर खुदाई का बहुत ही श्रेष्ठ और कलात्मक काम है। मुख्य मन्दिर में प्रवेश करते ही मुखमण्डप की छत का कटाई का काम अत्यन्त दर्शनीय है। इस एक ही शिला में शिल्पकार ने चाँद की कलाओं का विकास बताया है। रङ्गमण्डप के दो तोरणद्वार अखण्ड पत्थर से बने हैं जिनमें कला सजीव रूप में प्रकट हई है। रंगमण्डप के गुम्बद के घेरे में चारों ओर नाचती हुई पुत्तलिकाएं खड़ी हैं । मन्दिर में चौरासी तहखाने भी बताये जाते हैं, जो धरती में दूर-दूर तक फैले हुए हैं।
आजकल मन्दिर का सम्पूर्ण प्रबन्ध जैनियों की प्रमुख संस्था आनन्दजी कल्याणजी की पैढ़ी करती है। इसका प्रधान कार्यालय अहमदाबाद में है। एक शाखा सादड़ी में है जो सादड़ी, राणकपुर और राजपुरा के मन्दिरों की देखरेख करती है। इस पैढ़ी ने कई लाख रुपये मन्दिर के जीर्णोद्धार में लगाये हैं, फिर भी अभी बहुत काम होना शेष है। राणकपुर कभी एक बड़ी बस्ती रही है। यदि इस क्षेत्र की खदाई कराई जाए तो प्रभूत मात्रा में ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हो सकती है और मन्दिर के सम्बन्ध में भी नई बातें प्रकाश में आ सकती हैं।
मन्दिर की कलापूर्ण रचना को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए योरोपीय विद्वान् सर जेम्स फर्ग्युसन ने अपने ग्रन्थ 'हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर' में लिखा है-"इस मन्दिर का कोई एक भाग ही नहीं, अपितु इसका सारा रूप ही विशेषतासम्पन्न है। मन्दिर का बासा (पृथ्वीतल) जमीन से बहुत ऊंचा होने से मन्दिर बहुत ऊंचा दिखाई देता है । मन्दिर का प्रत्येक स्तम्भ अलग ढंग से सुसज्जित है । ४२० स्तम्भों में से एक स्तम्भ की अभिकल्पना (कटाई की डिजाइन) दूसरे स्तम्भ की अभिकल्पना से नहीं मिलती । शिल्लकार की छैनी इतनी खूबसूरती से चली है कि उसने पत्थर में हाथी-दांत की सी नक्काशी करने में सफलता प्राप्त की है। जहां तक मेरी जानकारी है, भारतवर्ष में इस कोटि का कोई दूसरा मन्दिर या भवन नहीं है जिसमें स्तम्भों पर इतना सुन्दर और प्रभावशाली निर्माण कार्य हुआ हो । मन्दिर के निर्माण के लिए ३७१६ वर्गमीटर जमीन घेरी गई है जो मध्ययुग के योरीपीय मन्दिरों के बराबर है परन्तु कारीगरी और सौन्दर्य में यह मन्दिर योरोपीय मन्दिरों से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर है ।"
मन्दिर की प्रत्येक शिला और पत्थर पन्द्रहवीं शताब्दी की कला का जीवन्त नमूना है। इस अद्वितीय कलातीर्थ की कला का वर्णन करने का सामर्थ्य लेखनी में नहीं । लेखनी साक्षात् दर्शन से हृदय में उत्पन्न होने वाले आनन्द को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है।
अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां,
वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् । इह मनुजकृतानां देवराजाचितानां
जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ
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