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________________ कया ।' जैन ग्रंथों में मलय और भद्दिलपुर के उल्लेख से प्रकट होता है कि बहुत प्राचीन समय में ही जैन धर्म का प्रचार सुदूर दक्षिण तक हो गया था । समयोपरांत प्राचीन जैन लेखकों ने प्रसिद्ध प्राचीन जैन स्थलों का संबन्ध किसी न किसी भांति जैन तीर्थंकरों से जोड़ने का प्रयत्न किया किन्तु वास्तव में ऐसा संबन्ध नहीं रहा । दक्षिण में कई स्थलों के नामों का अंत 'मलई' से होना प्राचीन मलय राज्य की स्थिति दक्षिण में होना पुष्ट करता है।' इसके अतिरिक्त मूल संघ की सबसे प्राचीन पट्टावली से भी पता चलता है कि भद्दलपुर दक्षिण में स्थित था । मूलसंघ के आरंभ के छब्बीस भट्टारकों की पीठ भद्दलपुर रही है । मूलसंघ के संस्थापक कु दकुद का निवास स्थान भी दक्षिण में ही था । बाद के इसी संघ के पच्चीस भट्टारकों का कार्य भी दक्षिण भारत रहा। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि इतने प्राचीन समय में मूलसंघ का अस्तित्व कहीं अन्य स्थल में रहा हो। इस मूलसंघ के प्रथम पीठ के भद्दिलपुर व भद्दलपुर नाम के स्थल की स्थिति कहीं न कहीं दक्षिण में होनी चाहिए किन्तु अभी तक इस स्थल की ठीक से स्थिति व पहिचान नहीं की जा सकी है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं भद्दिलपुर का भट्टारक पट्ट Jain Education International देव मिल्पी यक आपकै करी बीनती येडु तब मुनियर से कही, विविध क्षेत्र ले जाय । तब स्वरधारी विमान मुनि, चालयो मद्धि अकास मुनि वोले पीछी विनां हम नहि मग चानंत कहि ऐसो अब कह आया मोकों देहू । 1 भदिलापुर दक्षिण दिसा पट्ट भये छ - तियासी साल त्तै, पट बैठे श्रीमन्दिर स्वामी ती दरक्षण मोहि कराय | राह मांहि पोछी गिरी ठीक पड़यो नहि तास ॥ 1 I देव विचारी सो कह जिह विधि चालै संत ॥ " धिपछि के परन की, पछी दई वनाय । गृपछाचारिज यहै, तव तें नांम कहाय ।। स्वरमुनि गये विदेह मैं दरसण किया जिनराय ऊंची सब ही की लवी, धनुष पांच से काय ॥ चक्रवर्ति आयो तहां, दरस करण जगदीस । लषि वन मुनि को हाथ में, लयै उठाय महीस || भाषी यह को जीव है, कमडल पीछी धार । जिन भाषी मुनि है यहै, भरथषंड को सार ॥ तब चीयन को धरयो एलाचारिज नांम फुनि आये निज क्षेत्र में करि मनवांछित कांम ॥ | 3 छबीस बहुरि सुनहु जे जे भये मुनिराज । भट्टारक पद पाय करि जिला मुनि-यन ईस ॥ भये सुधर्म जिहाज ॥ बस्तराम साह कृत बुद्धि-विलास से साभार १. एपिग्राफिया इंडिका, १, पृ० २५१ २. पंचपांडवमलइ तिरुमलइ, वल्लिमलइ, नार्तामलइ, तेनिमलई, अलगर्मलड, ऐवर्मलइ, कलुगुमलइ और वस्तिमइल । जैन इतिहास, कला और संस्कृति For Private & Personal Use Only १३६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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