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________________ सातवाहन वंश के पश्चात् चालुक्यों के समय में ही आंध्र प्रदेश में स्थायी शासन स्थापित हुआ था। ६२५ ई० से १०७० ई० (लगभग चार सौ वर्ष) तक इस वंश का उस भू-प्रदेश पर शासन रहा, जिस पर सातवाहन शासन कर चुके थे। चालुक्य नरेश के समय बहुत से लोग बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी थे किन्तु प्रधानता वैदिक धर्म को मिल चुकी थी। फिर भी चालुक्य शासन के अन्तिम काल में बौद्ध धर्म विलीन हो गया, वैदिक धर्म और जैन धर्म बने रहे। इन दोनों धर्मों में संघर्ष होता रहा। कलिंग के चन्द्रवंशी शासक जैन मत को मानते थे । कलिंग और आन्ध्र में जैन धर्म की क्या स्थिति थी, इसका परिचय कलिंग के मुखलिंग, तेलंगाने के कुलनिपाक और गोदावरी जिले के ताटिपाक में बने हुए विशाल जैन मंदिरों से मिल सकता है। आज भी वहां तीर्थंकरों के जुलस निकाले जाते हैं। आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट राजा ध्र व ने बेंगी राजा चतुर्थ विष्णुवर्धन को हराकर उसकी पुत्री शीला महादेवी से विवाह कर समझौते का मार्ग प्रशस्त किया। राष्ट्रकूट जैन धर्म के अनुयायी थे। उक्त विवाह के कारण पूर्वी गोदावरी तक पश्चिमी गोदावरी मंडलों में जैन धर्म पुन: सुप्रतिष्ठ हुआ । अनेक तटाक खुदवाये गये। पर आश्चर्य की बात यह है कि कोई अभिलेख नहीं मिला। पिठापुरम्, जललूर, बामनपूडि, आर्यवटमु; काजुलूस, शील, प्रनगोंड, कलगमरूं, आदि ग्रामों में जैन तीर्थंकरों के विग्रहों (मूर्तियों) की प्राणप्रतिष्ठा की गयी । काकतीय का राज्य काल लगभग तीन सौ वर्षों तक व्यवस्थित रूप से चलता रहा। ११५८ ई० तक काकतीयों ने आन्ध्र प्रदेश पर काबू पा लिया था। प्रतापरुद्र (प्रथम) गणपति देव, रुद्रांबा और प्रतापरुद्र (द्वितीय) इस वंश में उल्लेखनीय शासक हुए। काकतीय वंश के प्रारम्भिक राजा जैन थे। कुछ समय पश्चात् इस वंश ने शैव मत की दीक्षा ली। जात-पात से रहित सर्व-जनसमता के जैन सिद्धान्त को शैव धर्म ने भी अपनाया। सोमदेवराजीयमु में लिखा है कि गणपति देव ने अनुमकोंडा के बौद्धों एवं जैनियों को बुलवाकर उन्हें प्रसिद्ध विद्वान तिक्कन्न के साथ शास्त्रार्थ करने पर मजबूर किया। गणपतिदेव ने तिक्कन्न की वाकपटता से प्रभावित होकर जैनियों के सिर उड़ा दिये और बौद्धों को बरबाद कर दिया। जहां दूसरी ओर काकतीय नरेशों ने जैन मंदिर बनवाये । अनुमकोंडा की पहाड़ी चट्टान पर उन्होंने जैन तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियां बनवाई । उसी पहाड़ पर पद्माक्षी का मंदिर भी है। धर्मामृतम् (१४ वीं शताब्दी) के अनुसार भट्टिप्रोलु में जैन संघ तसल्ली से जम गया। उन दिनों के कोई जैन अवशेप या चिन्ह उपलब्ध नहीं होते। ओनमालु : आन्ध्र प्रदेश में वर्णमाला को "ओनमालु" कहा जाता है। यह स्पष्ट है कि आज कल आन्ध्र प्रदेश में अक्षराभ्यास ओं नमः शिवाय, सिद्धं नम: से किया जाता है। मंडनम् मुंडनं पुस: कह शिरोमुडन की प्रथा भी चालू है। उत्तर भारत और केरल में श्री गणेशाय नमः के साथ विद्यारंभ होता है । पर आन्ध्र और कर्नाटक प्रदेशों के अन्दर ओं नमः शिवाय के साथ सिद्ध नमः भी जोड दिया जाता है । जैनी ओं नमः सिद्धेभ्यः के मंत्र के साथ विद्याभ्यास करवाते थे । क्योंकि यहां पहले जैन धर्म का प्रचार था। इसका प्रभाव लोक-जीवन पर पड़ा होगा और सिद्धम् नमः जैनियों से प्रचलित हुआ। व्याकरण के नियमानुसार 'नमः सिद्धेभ्यः' होना चाहिए। गाथा सप्तशती के दूसरे अध्याय के ६१वें श्लोक के आधार पर साहित्याचार्य भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री ने कहा है कि लोग ओं नमः सिद्धम के साथ अक्षराभ्यास करते थे। कविवर क्षेमेंद्र ने अपनी कृति "कविकण्ठाभरणम् में वर्णमाला को अनोखे रूप में श्लोकबद्ध किया है-पहला श्लोक है-- ॐ स्वस्त्य॑कम् स्तुमः सिद्धमंतर्माद्यमितीसितम् । उद्यदूर्जपम देव्या ऋ ऋ कृ क निगूहनम् ।। अंत में कहा गया है --- एताभिर्नमः सरस्वत्यै यः क्रियामातृकाम् जपेत् । उक्त श्लोक में स्तुमः सिद्धम् ध्यान देने योग्य है। अवशेष : जोगीपेट का कस्वा किसी समय पूर्णतया जैन जोगियों की बस्ती थी। वहां पर आज भी जैन धर्म के अनुयायी मौजूद हैं। यहां से कुछ दूर "कोलनुपाक" जैनियों का सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल है जहां दूर-दूर से लाखों यात्री हर साल आते हैं। हैदराबाद शहर में जैनियों के प्राचीन मंदिर हैं। बरंगल और अनुमकोंड में शहर के अन्दर और बाहरी पहाड़ी चट्टान पर बहुतेरी जैन मूर्तियां मौजूद हैं। जैन इतिहास, कला और संस्कृति १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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