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आन्ध्रप्रदेश में लोक संस्कृति की जैन परम्परा
भारत देश में धर्म और दर्शन का घनिष्ठ संबंध रहा है । इसके दो कारण हैं :
(१) संसार आध्यात्मिक है । (२) विश्व की अनेकता में एकता विद्यमान है । अतः यह धारणा बलवती बन गई है कि वास्तविक सत्य एक ही है । उस सत्य के अन्वेषण में विभिन्न धर्मों के मार्ग पृथक्-पृथक् हैं। अतः उनके दार्शनिक विचारों में मतभेद होना सहज ही है।
भारत में समस्त दर्शनों को स्थूल रूप में दो भागों में विभक्त किया गया है : ( १ ) आस्तिक ( २ ) नास्तिक । आस्तिक दर्शन वेदों की प्रामाणिकता को मानते हैं नास्तिक है जो वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते। नास्तिक दर्शन सीन हैं- (१) चार्वाक, (२) बौद्ध, और (३) जैन चार्वाक दर्शन भौतिकवादी है। गौतम ने (५३५ ई० पू० ४८५ ई० पू०) बौद्ध दर्शन की स्थापना की थी। बोध प्राप्ति से पूर्व वे अनीश्वरवादी सिद्धान्त के समर्थक थे । वर्धमान महावीर (ई० पू० ५६६-५२७ ई० पू० ) जैन धर्म के संस्थापक थे । महावीर के निर्वाण के अनन्तर उनके अनुयायी दो विभागों में विभक्त हो गये (१) दिगम्बर (२) श्वेताम्बर दिगम्बर मत के अनुयायी दिगम्बरत्व (पूर्णनग्नत्व) का प्रचार करते थे। इस मार्ग को निग्रंथिक कहा जाता है । श्वेताम्बर मार्ग के अनुयायी श्वेताम्बर ( श्वेत वस्त्र ) को पहनना स्वीकार करते थे । अहिंसा - सिद्धान्त के अपनाने से ही जैन धर्म का विशेष प्रचार हुआ ।
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ऐतिहासिक विकास :
प्राचीन हिन्दू धर्म ने आन्ध्र प्रदेश को दो महान् उपहार दिये हैं। वे हैं - (१) मंदिर, और (२) मठ । इसी प्रकार बौद्ध एवं जैन धर्मों की लोकप्रियता के कारण आन्ध्र प्रदेश में बौद्ध विहारों एवं जैन बस्तियों को भी प्रभुत्व को स्थिति प्राप्त हुई । हिन्दू धर्म के अन्य रूपों के साथ-साथ जैन धर्म ने भी आन्ध्र प्रदेश के लोगों का ध्यान बहुत आकर्षित किया था और इस धर्म के अनुयायियों की संख्या भी पर्याप्त मात्रा में थी । इस धर्म को भी राजाओं का और जनता का संरक्षण प्राप्त था । आन्ध्र प्रदेश में जैन धर्म के अवशेषों का यद्यपि काल निश्चित नहीं है तथापि इनके आधार पर कुछ विश्वासपूर्वक कहा जाता है कि ई० पू० द्वितीय शताब्दी से इस धर्म का प्रचार व प्रसार यहां था ।
डॉ० कर्ण राजशेषगिरिराव
सातवाहन किसी व्यक्ति या जाति का नाम न रहकर एक परिवार का नाम था । इस परिवार के तीस राजाओं ने ई० पू० २२० से ई० पू० २२० वर्ष तक शासन किया । इनमें उल्लेखनीय हैं—
प्रथम तथा द्वितीय शाकुंतल, हाल गौतमीपुत्र पुलमावि और यहभी सातवाहन नरेश वैदिक धर्मावलंबी थे। फिर भी वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु थे । प्रथम सातवाहन राजा जैन धर्म का अनुयायी रहा। जैन धर्म के इतिहास में अत्यन्त प्रसिद्ध सिंहनन्दी आन्ध्र प्रदेश से सम्बद्ध थे। पूर्वी गोदावरीस्थित आर्यवट वासुपूज्य तीर्थंकर के समय का क्षेत्र था। वहां का जैन स्तूप मिट्टी के लिए खुदवाया गया । जैन मिट्टी के काम में कुशल थे । उन दिनों बड़े-बड़े तालाबों को खुदवा कर उस मिट्टी से स्तूप को या गढ़ की दीवार को बनाने की परिपाटी थी । निम्नलिखित तटाक जैनों द्वारा खुदवाये गये -
नेमा ग्राम ( पिठापुरम )
नेदुनूरू (अमलापुरम) पेनगोंडा (पश्चिमी गोदावरी)
जैन धर्म वासुपूज्य तीर्थंकर के समय में ही प्रतीपालपुरम ( भट्टिप्रोल) आया था। पर उसमें उल्लिखित नाम कमल श्री, संपथी आदि नाम इत्वा काल को सूचित करते हैं। पहली शताब्दी में कोट दलाचार्य तथा ५वीं शताब्दी में पल्लव नरसिंह के समय के 'लोक विभाग के रचयिता जनाचार्य सिनन्दी जैन धर्म के उत्साही प्रचारक थे।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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