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________________ जैन परम्परा का का सांस्कृतिक मूल्यांकन भारतीय संस्कृति के इतिहास में जैन धर्म तथा उसके अनुयायियों ने ठोस कार्य किया, इसमें कोई संदेह नहीं है । भारतीय संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि वैदिक काल के अन्तिम अंश में उपनिषदों की शिक्षा के कारण भारत में प्रबल वैचारिक परिवर्तन हुआ । इसके फलस्वरूप कर्मकाण्ड निःसार प्रतीत हुआ, वेदों के प्रामाण्य पर आघात हुआ और ईसा के पूर्व आठवीं शताब्दी में ही प्रचलित जीवन के विषय में लोगों में असन्तोष की लहर पैदा हुई। इसी काल में वैदिक कर्मकाण्ड का विरोध करने वाले श्रमण-संप्रदायों का जन्म हुआ जिनमें नन्दवच्छ द्वारा प्रवर्तित आजीविक-पंथ, मक्खलि गोसाल द्वारा पुरस्कृत अक्रियावादी पंथ, अजित केशकम्बली द्वारा प्रस्थापित विशुद्ध भोगवादी संप्रदाय, पकुध कात्यायन प्रणीत शाश्वतवाद तथा संजय वेलट्ठिपुत्त द्वारा पुरस्कृत अज्ञेयवाद का प्रधान रूप से समावेश है। इनके अतिरिक्त कई प्रकारों के तपस्वी, परिव्राजक जटाधारी, काण्टिक उवृत्ति को अपनाने वाले औतिक तथा प्रागण्डिक अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार देहदण्ड पर जोर देकर जनता के मन पर प्रभाव डाल रहे थे । वैचारिक मन्थन की इस पार्श्व - भूमि पर वर्धमान महावीर तथा तथागत द्वारा प्रणीत कर्म एवं दर्शन का सही मूल्यांकन करना समीचीन होगा। , जैनों की परम्परा के अनुसार जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है। जैन धर्मानुयायियों का कथन है कि वैदिक साहित्य में भी जैन तीर्थङ्करों के नाम पाए जाते हैं । युग-युग में जैन धर्म के जो प्रणेता हुए उन्हीं को 'तीर्थङ्कर' की संज्ञा प्राप्त है और जैन परम्परा के अनुसार वर्धमान महावीर तक जो चौबीस तीर्थङ्कर हुए उनके नाम हैं-ऋषभदेव, अजित संभय, अभिनन्दन, सुमती, पद्मप्रभ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ, सुविधि ( पुष्पदन्त), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शान्ति, कुथु, अर, मल्ली मुनिसुव्रत, नमी, अरिष्टनेमी, पार्श्व तथा वर्धमान (महावीर ) । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत एवं युवराज बाहुबलि जैसे विद्वान् एवं बलवान् व्यक्तियों के बीच राज्यलोभ एवं मान-रक्षा की वजह से जो जनहिंसाविरहित संघर्ष हुआ वही उनकी आखों में पहला 'महाभारत' है जिसकी हिंसायुक्त पुनरावृत्ति द्वापर युग के कौरव-पांडव संघर्ष में याने सुविदित्त महाभारत' में पाई जाती है। परम्परा के अनुसार तेईसवें तीर्थर पार्श्व वर्धमान महावीर के २५० वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। इन्होंने आत्मसंयम तथा तप पर बल देकर निग्गंथ परिव्राजकों के संघ का निर्माण किया । आत्मसंयम कर्म - निर्माण का अवसर प्रदान नहीं करता और तप उनके कथनानुसार कर्म का नाश करने में सक्षम होता है । भगवान् पार्श्व नाथ को 'चाउज्जाम धम्म' के निर्माण का श्रेय प्राप्त है, जो सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं ब्रह्मचर्य इन्हीं चार नियमों की स्थापना करते हैं । जैन परिभाषा के अनुसार ये नियम हैं - ( १ ) सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणम् (२) सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणम् (३) सव्वाओ अदिन्नादानाओं वेरमणम्, तथा (४) सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणम् । संयम तथा साधुत्व का अनुपम आदर्श प्रतिस्थापित करने वाले भगवान् महावीर ने (सिद्धार्थ पुत्र वर्धमान ने ) इसमें 'सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणम्' को याने अपरिग्रह के तत्त्व को जोड़कर पांच महाव्रतों का निर्माण किया। सभी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय पाने के कारण महावीर को 'जिन' पाने विजेता एवं उनके मतानुयायियों को 'जैन' कहा जाने लगा । डॉ० मोरेश्वर पराडकर भगवान् महावीर ने सम्पूर्ण वैभव तथा ऐहिक सुख को तिलांजलि देकर दिगम्बर रूप में बारह वर्षों तक लगातार भारत का भ्रमण किया । आत्मक्लेश, अनशन, अध्ययन तथा चिंतन से मानव कर्म से मुक्त हो सकता है-इसे प्रतिपादित किया । कैवल्य की प्राप्ति के लिए उनके सिद्धान्त के अनुसार न वेदों के प्रामाण्य की स्वीकृति आवश्यक है, न यज्ञों का आडम्बर रचाना जरूरी है। कर्मकाण्ड के आडम्बर से बहुजन समाज ऊब उठा था, उसे पांचों महाव्रतों पर जोर देने वाला महावीर-प्रणीत धर्म रोचक प्रतीत हुआ । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह -इन पांचों को विशुद्ध रूप में अपनाना केवल विरागी मुनियों के लिए ही सम्भव है - इसे भली १. इसके स्पष्टीकरण के लिए देखें - मराठी में ज. ने. क्षीरसागर प्रगीत 'आर्या महापुराण धर्म्ययुद्ध और उस पर प्रस्तुत लेखक की टिपणियां । प्रकाशन - १६८१ मार्च अप्रैल | जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only १२३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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