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________________ गया : साधारणतः प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक संगठन एवं सम्बन्धों में कन्फ्यूसियस के आदर्श को मानता, ज्योतिष सम्बन्धी बातों में लाओत्सु के ताओवाद का अनुसरण करता और आध्यात्मिक आकांक्षाओं की सन्तुष्टि बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा में पाता था। ___ बाह्य जीवन में थेरवादी और महायानी भिक्षुओं के बीच विशेष अन्तर नहीं है। महायानी एवं हीनयानी भिक्षुओं की चर्चा में जो अन्तर आ पड़ा, वह महायान में बोधिसत्त्व चर्या के विकास के कारण हुआ। बोधिसत्त्व के लिए आमिषाहार सर्वथा निषिद्ध है। भौगोलिक आवश्यकताओं के रहते भी चीन में भिक्षु निरामिष भोजन ही करते थे। कुछ तो दूध का भी वर्जन करते थे। भारत में ही विभिन्न सम्प्रदायों के बीच चीवर में अन्तर आ पड़ा था। थेरवादी भिक्षुओं के चीवर से यहां के भिक्षुओं का परिधान भी बदल गया है। समाज के प्रति भिक्षुओं की जिम्मेदारियाँ भी हीनयानी भिक्षुओं की अपेक्षा सिद्धान्तत: अधिक थीं क्योंकि ये पर-कल्याण के आदर्श में विश्वास करने वाले थे । भिक्षु साधारणजन की धार्मिक-आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करते थे। . चीन से बौद्ध धर्म कोरिया में गया । कोरिया के सामाजिक गठन का आधार भी कन्फ्यूसियस का सामाजिक दर्शन था। कोरिया में बौद्ध धर्म का प्रचार चीनी बौद्ध धर्म एवं परम्परा का ही विस्तार मात्र था। कालान्तर में स्थानीय विशेषतायें भी उभर आयीं और कोरियाई बौद्धधर्म का एक अपना स्वरूप भी बन गया। कोरिया के ही सम्पर्क से बौद्धधर्म जापान गया, परन्तु शीघ्र ही जापान की दष्टि चीन की ओर पड़ी और जापान ने चीनी बौद्ध धर्म एवं परम्परा को हूबहू अपना लिया। प्रारम्भ में बौद्ध धर्म उच्च वर्ग के लोगों के मध्य ही फैल सका और उस अवस्था में वह चीनी बौद्ध धर्म एवं परम्परा का विस्तार मात्र था। तेरहवीं शताब्दी में इसे राष्ट्रीय रूप देने एवं साधारण जन में लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास किया जाने लगा। इसमें पूर्ण सफलता मिली और बौदधर्म शीघ्र ही यहाँ का लोक धर्म बन गया। इस काल में श्रमण परम्परा में एक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। सिनरान ने विवाहित भिक्ष जीवन की प्रथा का प्रारम्भ किया। वर्तमान में स्थिति यह है कि कुछेक सम्प्रदायों में ही भिक्षु बनने और आजीवन ब्रह्मचर्य के पालन की प्रथा शेष रह गई है। साधारणजन के लिए धार्मिक कृत्यों एवं अनुष्ठानों के सम्पादन करने वाले मंदिरों के अधिकारी वर्ग का उदय हुआ जो हिन्दू समाज के ब्राह्मण वर्ग के समकक्ष प्रतीत होते हैं । ये धार्मिक कार्यों के सम्पादन के समय एक विशेष प्रकार का परिधान पहनते हैं और शेष समय में गृहस्थ जैसा जीवन व्यतीत करते हैं । इस शताब्दी में विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के कुछ पूर्व से जापानी बौद्ध परम्परा में एक और महत्त्वपूर्ण मोड़ आया हैवह है गृहस्थ बौद्ध सम्प्रदायों का जन्म। इन सम्प्रदायों के अपने अनुयायी हैं, अपना मंदिर है, अपने धार्मिक एवं गैर-धार्मिक संस्थान हैं। धार्मिक कृत्यों का सम्पादन वे स्वयं करते हैं । आज भौतिक सुख-सुविधायें और बढ़ते भाग-दौड़ ने व्यक्ति के जीवन में मानसिक तनाव पैदा कर दिया है, मानवीय गुणों का ह्रास हो रहा है और व्यक्ति 'स्व' में केन्द्रित हो विलगाव की भावना का शिकार बनता जा रहा है। बद्ध के बताये मार्ग पर चलकर अपने बदलते परिवेश के बीच व्यक्ति किस प्रकार मानसिक संतुलन बनाये रख सकता है और सबके साथ सुखी जीवन जी सकता है, यही इन सम्प्रदायों की मुख्य समस्यायें हैं। जापान में भिक्षु जीवन वही था जो चीन और कोरिया में, पर बौद्ध धर्म के राष्ट्रीकरण एवं उसके सिद्धान्त को जीवन में उतारने के क्रम में भिक्षुओं का कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया। वे धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन में सिमटे रहने की अपेक्षा सम्पूर्ण सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में पूर्ण योगदान करने लगे। परिणामस्वरूप चित्रकला, उद्यान, फूल सज्जा, टी सिरोमनी आदि का विकास हुआ। आज ये चीजें जापान की अपनी विशेषतायें बनी हैं और जापान के लोगों का सम्पूर्ण जीवन सौन्दर्यपरक हो गया है। इन सबके विकास का श्रेय बौद्ध भिक्षुओं को ही है । तिब्बत का लामा-धर्म : तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रवेश सातवीं शताब्दी में चीन एवं नेपाल के सम्पर्क में आने पर हुआ, परन्तु शीघ्र ही तिब्बत भारत की ओर मुड़ा और वहां भारतीय भिक्षुओं के सहयोग से धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। उस समय भारत में बौद्धधर्म एवं दर्शन के विकास का अन्तिम चरण, मंत्र-तंत्र का युग था । बौद्धधर्म के प्रवेश के पूर्व तिब्बत की सभ्यता एवं संस्कृति विकसित नहीं थी। धर्म के नाम पर लोगों के बीच फैला अन्धविश्वास एवं प्राकृतिक शक्तियों की उपासना ही लोकधर्म था जिसे बौद्धधर्म के सहयोग से बोन धर्म के रूप में विकसित किया गया। तिब्बत की भौगोलिक स्थिति, उसका बौद्धिक स्तर एवं जन-विश्वास की पृष्ठभूमि में तांत्रिक बौद्ध धर्म लोगों के अधिक अनुकूल सिद्ध हुआ और सम्पूर्ण तिब्बत में इसी का प्रचार-प्रसार हुआ। परन्तु तांत्रिक बौद्धधर्म का धार्मिक स्वरूप वहां के लोगों के विश्वास, रीति-रिवाज आदि के साथ मिलकर एक नये रूप में उभर आया जिसे लामाधर्म के नाम से अभिहित किया गया। १०२ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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