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________________ मौर्यनन्द १. २. ३. ( ( मगध सम्राट् ) पद्मनन्द | ७४ पूर्वनन्द - चन्द्रगुप्त ( १ ) - बिन्दुसार - अशोक कुणाल पालित इन्द्र पालितशतधार I | बृहदश्व 1 | पुष्यमित्र ( उज्जयिनी ) I सम्प्रति Jain Education International i बृहस्पति यसेन पुष्यधर्मा पुष्यमित्र' तिष्यगुप्त ! बलमित्र 1 द्रव्यवर्धन यदा पुष्यमित्रो राजा प्रघातितः तदा मौर्यवंशः समृच्छिन्नः ॥ विक्रमार्क का उज्जयिनी में राज्याभिषेक ; हिमवन्त थेरावली (वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना; पृष्ठ १८५) I चन्द्रगुप्त ( २ ) | For Private & Personal Use Only साहसाङक | विक्रमार्क प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्यवर्धन ( दधिवाहन वा) का पुत्र चन्द्रगुप्त एक वरेण्य व्यक्तित्व है, जिसकी अमर गाथाओं से जैन साहित्य सम्यक्तया आप्लावित है । (१८४ १०) ई० पू० मगधसत्ता गुप्तवंश: जैन-ग्रन्थों से पता चलता है कि सम्राट अशोक ने गुप्त-संवत्सर' चलाया। इस पर दिवंगत मुनिश्री कल्याणविजय ने अपनी नकारात्मक टिप्पणी भी लिखी है। इसके विपरीत हम इस गुप्त-संवत्सर पर अनुसंधानपूर्वोचित श्रद्धा रखते हैं और एतन्निमित्त साक्ष्य ढूँढ़ने में तत्पर हैं । यह तो जैन-शास्त्रों में लिखा है कि जब उज्जयिनी पर से सम्प्रति (वंश) का शासन समाप्त हो गया, तब "वहाँ का राज्यासन अशोक के पुत्र तिष्यगुप्त के पुत्र वलमित्र और भानुमित्र नामक राजकुमारों को मिला।" बहुत संभव है तिष्यगुप्त से इस वंश का नाम 'गुप्तवंश' पड़ा हो ! हम जानते हैं कि सूर्यवंश से 'इक्ष्वाकुवंश' और इश्वाकुवंश से 'रघुवंश' का शाखा-उपशाखा के रूप में प्रस्फुटन इतिहास-सम्मत है तु, नंदबंग से 'मौर्यवंश' और मौर्यवंश से 'गुप्तवंश' का प्रस्फुटन वंशविज्ञान की दृष्टि से प्रशस्त है और ऐतिहा है। हम चन्द्रगुप्त के परिचय - विश्लेषण में 'गुप्तवंश' को ध्यान में रखेंगे । पर १२ वर्षीय अकाल : भारत में १२-१२ वर्ष के अकाल पड़ने का इतिहास काफी पुराना है । पुराण- शास्त्रों से ज्ञात होता है कि महाराजा प्रतीप के जमाने में १२ वर्षीय ( ३३६४-३३५२ ई० पू० ) अकाल पड़ा था। जैन इतिहास के अनुसार भी १२ वर्षीय दो अकाल पड़ने की सूचना है। पहला अकाल पद्मनन्द ( अर्थात् नवम नंद) के शासनकाल में, ३८२-३७० ईसवी पूर्व में पड़ा था। दूसरा अकाल शुंगवंशी पुष्यमित्र के शासनकाल में, अर्थात् १६० १४८ ईसवी पूर्व में पड़ा था। इन दो अकाल घटनाओं की वजह से जैन-जगत् को महती अपूरणीय क्षति उठानी पड़ी। चूँकि प्राङ मौर्य युगों में जैन आगम केवल कण्ठस्थ हुआ करते थे, अतः अकाल के दुष्प्रभावों के परिणामस्वरूप असंख्य जैन मुनि दिवंगत हुए और उनके अमर निर्वाण के साथ ही कण्ठस्थ जैन आगम भी तिरोहित हो गए। उनके पुनर्भाविर्भाव की सर्वविध संभावनाएँ भी लुप्त हो गई थीं। लगभग यही स्थिति दूसरे अकाल में भी थी। इन दोनों अकालों के बीच में एक स्पष्ट विभाजक | शुंगवंश का अधिकार रहा -प्रशोकावदानः • और निर्वाण से २३६ वर्ष बीतने पर मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की और वहां के राजा क्षेमराज को अपनी आज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना 'गुप्त संवत्सर' चलाया।' इस पर मुनिश्री की टिप्पणी (३) ध्यानाकर्षित करती है: "मालूम होता है थेरावली लेखक ने अपने समय में प्रचलित गुप्त राजाओं के चलाए गुप्त संवत् को अशोक का चलाया हुआ मान लेने का धोखा खाया है। - वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना : पृष्ठ १७१ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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