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। मानवीय भूगोल-इसके अन्तर्गत मानव जाति के क्रमिक विकास की चर्चा रहती है। मुलाराधना में ४ प्रकार के मनुष्यों के उल्लेख मिलते हैं: (१) कर्मभूमिज' अर्थात् वे मनुष्य, जो कर्मभूमियों में निवास करते हैं और जहां असि, मषि, कृषि, शिल्प, सेवा, वाणिज्य आदि के साथ-साथ पशु-पालन एवं व्यावहारिकता आदि कार्यों से आजीविका के साधन मिल सके । साथ ही साथ स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त करने के साधन भी मिल सके । इस भूमि के मनुष्य अपने-अपने कर्मों एवं संस्कारों के अनुरूप प्रायः सुडौल एवं सुन्दर होते हैं।
२. मूलाराधना के टीकाकार के अनुसार अन्तर्वीपज मनुष्य वे हैं, जो कालोदधि एवं लवणोदधि समुद्रों के बीच स्थित ६६ अन्तर्वीपों में से कहीं उत्पन्न होते हैं । ये गूंगे, एक पैर वाले, पूंछ वाले, लम्बे कानों वाले एवं सींगोवाले होते हैं। किसी-किसी मनुष्य के कान तो इतने लम्बे होते हैं कि वे उन्हें ओढ़ सकते हैं । कोई-कोई मनुष्य हाथी एवं घोड़े के समान कानों वाले होते हैं।
३. भोगभूमिज मनुष्य मद्यांग, तूयांग आदि १० प्रकार के कल्पवृक्षों के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं ।
४. सम्मूर्छिम मनुष्य कर्मभूमिज मनुष्यों के श्लेष्म, शुक्र, मल-मूत्र आदि अंगद्वारों के मल से उत्पन्न होते ही मर जाते हैं। उनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण बताया गया है ।
उक्त मनुष्य-प्रकारों में से अन्तिम तीन प्रकार के मनुष्यों का वर्णन विचित्र होने एवं नृतत्त्व-विद्या (Anthropology) से मेल न बैठने के कारण उन्हें पौराणिक-विद्या की कोटि में रखा जाता है । वैसे अन्तीपज मनुष्यों का वर्णन बड़ा ही रोचक है। रामायण, महाभारत एवं प्राचीन लोककथाओं में लम्बे कानों वाले मनुष्यों की कहानियां देखने को मिलती हैं । इनके उल्लेखों का कोई न कोई आधार अवश्य होना चाहिए । मेरा विश्वास है कि इस प्रकार की मानव जातियाँ या तो नष्ट हो गई हैं अथवा इन की खोज अभी तक हो नहीं पाई है। मानव-भूगोल (Human Geography) सम्बन्धी ग्रन्थों के अवलोकन से यह विदित होता है कि अन्वेषकों ने अभी तक बाल, सिर, नाक, शरीर के रंग एवं लम्बाई-चौड़ाई के आधार पर मानव-जातियों की खोजकर उनका तो वर्गीकरण एवं विश्लेषण कर लिया है, किन्तु लम्बकर्ण जैसी मानव-जातियाँ वे नहीं खोज पाए हैं। अत: यही कहा जा सकता है कि या तो वे अभी अगम्य पर्वत-वनों की तराइयों में कहीं छिपी पड़ी हैं अथवा नष्ट हो चुकी हैं।
कला एवं विज्ञान-कला का उपयोग लोकरुचि के साथ-साथ कुछ धार्मिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को व्यक्त करने हेतु किया जाता है। प्रदर्शनों के माध्यम पत्थर, लकड़ी, दीवाल, मन्दिर, देवमूर्ति, ताड़पत्र एवं भोजपत्र आदि रहे हैं । धीरे-धीरे इनमें इतना अधिक विकास हुआ कि इन्हें वास्तु, स्थापत्य, शिल्प, चित्र, संगीत आदि कलाओं में विभक्त किया गया। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर मलाराधना में वस्तुकला के अन्तर्गत गन्धर्वशाला, नत्यशाला, हस्तिशाला, अश्वशाला, तैलपीलन, इक्ष पीलन सम्बन्धी यन्त्रशाला, चक्रशाला, अग्निकर्मशाला, शांखिक एवं मणिकारशाला, कौलिकशाला, रजकशाला, नटशाला, अतिथिशाला, मद्यशाला, देवकल, उद्यानगह आदि स्थापत्य एवं शिल्प के अन्तर्गत लोहपडिमा पूवरिसीणपडिमा', कट्टकम्म', चितकम्म, जोणिकसलेस". कंसिभिगार आदि तथा संगीतकला के अन्तर्गत पांचाल-संगीत के नामोल्लेख मिलते हैं।
- विज्ञान-मूलाराधना यद्यपि आचार सिद्धान्त एवं अध्यात्म का ग्रन्थ है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्म-विद्या के साथ-साथ भौतिक विद्याओं का भी निरन्तर विकास होता रहता है। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि भौतिक विद्याओं से ही आत्म विद्या के विकास की प्रेरणा मिलती रही है । ईस्वी की प्रथम सदी तक जैनाचार्य शिवार्य को तत्कालीन भौतिक विज्ञानविकास की कितनी जानकारी थी, उसकी कुछ झलक प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलती है, जिसका परिचय निम्न प्रकार है:
१. गाथा ४४६ की सं० टी०, पृ०६५३. २-४. दे० गाथा ४४६ को टीका, प० ६५२. ५. दे. मानव भूगोल-एस. डी. कौशिक (मेरठ १९७३-७४) । ६. गाथा ६३३-६३४-गंधवणट्टजट्टस्सचक्कजंतगिकम्म फरुसेय ।
णत्तियरजयापाडहिडोवणड....."|
चारणकोट्टग कल्लालकरकच"......। ७.८, दे० गाथा २००८ तथा १५६६. ६. दे. गाथा १०५६-रूवाणि कट्ठकम्मादि .......... १०. दे० गाथा, १३३६. ११. दे० गाथा. ३३७. १२. दे० गाथा ५७६. १३. दे० गाथा १३५६.
भाचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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