________________
चतुर्विध संघ-प्रस्तराकंन
श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी
मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका, इनके समुदाय को जैन संघ कहते हैं। मुनि और आयिका गृहत्यागी वर्ग है। श्रावक तथा श्राविका गृही वर्ग है । जैन संघ में ये दोनों वर्ग बराबर रहते हैं । जब ये वर्ग नहीं रहेंगे तो जनसंघ भी नहीं रहेगा और जब जैनसंघ नहीं रहेगा तब जैन धर्म भी न रहेगा।
अस्तु, मथुरा की ई० पू० से ईस्वी सन् की ब्राह्मणधर्म की, यथा, विष्णु, शिवादि की प्रतिमाओं की चरण-चौकी बिल्कुल सादा मिलती हैं। किन्तु, बुद्ध की दो प्रतिमाओं पर मूलमूर्ति के नीचे आधार की पट्टी पर धर्मचक्र के आस-पास मालाधारी गृहस्थ जो आभूषणादि से वेष्टित हैं, उन्हें अलंकरण के रूप में बनाया हुआ पाते हैं। ये अलंकरण हैं, ऐसा बौद्ध कला एवं धर्म के मर्मज्ञ विद्वान् प्रो० चरणदास चटर्जी ने इन पंक्तियों के लेखक को एक भेंट में बतलाया था। दूसरे, बुद्ध-प्रतिमा के नीचे मध्य में बोधिसत्त्व तथा उनके दाँए बाए स्त्रियां तथा पुरुष गहस्थ मालाए लिये खड़े हैं। इन दो निदर्शनों को छोड़कर यहां के संग्रह में एक स्वतंत्र पट्ट है जिस पर माला लिये, लम्बा कोट पहने पाँच पुरुष खड़े हैं। ऊपर पत्रावलि, नीचे स्तम्भों के मध्य माला व पुष्प लिये पाँच पुरुष आवक्ष और दायीं तरफ गरुड़ पक्षी व नीचे खिला कमल बना है। एक दूसरा छोटा सिरदल, जिस पर तीन श्रावक व बायीं तरफ के शेर का मुखमात्र ही शेष है।
१. जैन धर्म, पं० कैलासचन्द्र शास्त्री, वाराणसी, प० २८५।
जे-२४३ : सर्वतोभद्र-प्रतिमा के चरणों के दोनों ओर २. रा० सं० सं०, बी०१ व ६६.१५३।
श्रावक एवं श्राविका (कंकाली टोला, मथुरा) ३. मैंने प्रो० सी०डी० चटर्जी से भेंट दि० ८.१२.८१ को उनके आवास 'सप्तपर्णी' में की। उन्होंने बताया कि खहकपाठ में ऐसा वर्णन है कि भिक्षु मालादि
नहीं ले सकता है। दीघनिकाय में बुद्ध ने स्वयं साधुओं को मालादि से दूर रहने को कहा है। ४. रा० सं० सं०, बी०-१४७ ।
जे-५४ जें-३५४ व जे-६०६ ।
**
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jan Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org