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________________ स्थिति को पहुँच गये। अभी भी लगभग २५ वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में लगभग एक दर्जन जैन बसदियां देखने को मिलती हैं। इस क्षेत्र से एकत्र की गयी कई जैन मूर्तियाँ कालेज संग्रहालय में प्रदर्शित हैं। मैसर जिले में शालिग्राम के निकट हनसोगे में तीन कोठरियों वाली एक प्राचीन बसदि है जिसे त्रिकूटन चैत्यालय कहा जाता है और जो आदिनाथ तीर्थंकर को समर्पित है। इस भव्य जैन स्मारक की बड़ी अवहेलना की गयी है। इसमें अत्यंत उत्कृष्ट मूर्तियां हैं। किसी काल में हनसोगे दक्षिणी जैन धर्म के एक बहुत बड़े धर्माध्यक्ष का मुख्य स्थान था। सुविख्यात श्री शारदा मन्दिर के प्रांगण में लगभग १८ मीटर ऊंचा एक एकाशम स्तम्भ खड़ा है । यह जैन परम्परा वाला मान स्तम्भ ही है। स्तम्भ के दक्षिण मुख पर एक जैन मूर्ति खुदी हुई है। इससे सिद्ध है कि यह न तो कोई गरुड 'कंबा' है और न रूढ़ हिंदू मन्दिर-वास्तुकला का कोई ध्वज स्तम्भ ही। भगवान महावीर ने अपने धर्मोपदेश में जनसाधारण के स्वर को अभिव्यक्ति दी थी। समाज में व्याप्त विसंगतियों की तरफ उन्होंने सफलतापूर्वक ध्यान आकर्षित किया। समता के आधार पर सामाजिक संरचना पर उन्होंने बल दिया। इसीलिए तीर्थकर महावीर द्वारा प्रतित धर्म ने देश में शीघ्र ही गहरी जड़ें जमा लीं । रूसी विद्वान् ग्रि० म० बोंदर्ग-लेविन के अनुसार-"आरम्भ में उनके उपदेशों ने बिहार में ही जड़ पकडी जहां उनके प्रभावशाली संरक्षक और सहायक थे, किन्तु कालान्तर में भारत के दूरस्थ प्रदेशों में भी उनके पंथ के केन्द्र स्थापित हो गए। वह महावीर तथा जिन (इंद्रियों के विजेता) के नाम से प्रसिद्ध हुए। नये धर्म के सांसारिक जीवन को त्याग देने वाले अनुगामियों के अलावा बहुतसे गहस्थों ने भी महावीर का अनुगमन किया। इस तरह के लोगों के लिए गार्हस्थ का परित्याग करना आवश्यक नहीं था, पर उन्हें गृहस्थों के लिए निर्धारित विधान का पालन करना होता था। कालान्तर में जैन धर्म न केवल देश के सांस्कृतिक जीवन में, बल्कि सामाजिक जीवन में भी एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया।" भगवान महावीर स्वामी ने अपनी पद-यात्राओं द्वारा देश के बड़े भू-भाग को अनुगहीत किया था। उनकी सरल एवं सटीक शिक्षाएं जन सामान्य की भाषा अर्धमागधी में होती थीं। अतः समाज के सभी वर्गों से उनका सहज सम्बन्ध बन जाता था। आज के भारत में जैन समाज को अल्पसंख्यक रूप में देखकर यह विचार मन में आता है कि विश्वधर्म के प्रणेता महावीर के अनुयायियों की संख्या इतनी कम क्यों रह गई? इस अवसर पर विस्तृत विवेचन में न जाकर केवल इतना कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत धर्म में आस्था रखने वाले भाईबहिनों को कालान्तर में सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के कारण अपनी धार्मिक मान्यताओं में कुछ परिवर्तन करने पड़े थे। इस प्रकार के परिवर्तनों के उपरान्त भी जैन धर्म का सांस्कृतिक प्रभाव उनके जीवन में आज तक दृष्टिगोचर होता है । इतिहास इस सत्य की पुष्टि करता है कि प्राचीन काल में बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल में जैन धर्म की अत्यन्त सम्मानजनक स्थिति थी । आज भी इन राज्यों में शराक बड़ी संख्या में रहते हैं और जैन धर्म में प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करते हैं। उनकी दैनिक दिनचर्या सूर्योदय से आरम्भ होकर सूर्यास्त के साथ समाप्त हो जाती है । वह कट्टर शाकाहारी के रूप में वजित वृक्षों के फलों का भी सेवन नहीं करते। श्री एल० एस० ओमेले ने १९०८ ई० में लिखा था-"श्रावक शब्द का अपभ्रष्ट रूप ओडिशा के शराक लोगों की पहचान बना। इन लोगों की ओडिशा में चार बस्तियां हैं। पुरी के शराक दूसरों से भिन्न हैं। ये लोग शाकाहारी हैं और माघ सप्तमी के अवसर पर खंडगिरि के गुफा मन्दिरों में एकत्र होते हैं।"3 खोजबीन से यह जानकारी मिलती है कि माघ सप्तमी का पावन दिवस भगवान् सुपार्श्वनाथ एवं चन्द्रप्रभु का मोक्ष कल्याणक दिबस है। इसी प्रकार राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के जथरिया भूमिहार को भगवान् महावीर की परम्परा में स्वीकार किया है । अपने अकाट्य तों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है-वैशाली के लिच्छवियों की एक शाखा ज्ञात थी, जिसे पालि में नात या नती भी कहा जाता है। तीर्थंकर महावीर को वैशालिक और ज्ञातृपुत्र (पालिः नात-पुत्र) कहा गया है । उनके वैशाली में उत्पन्न और ज्ञातृ-सन्तान होने में कोई सन्देह नहीं, लेकिन अभी बहुत-से जैन इसे मानने में आनाकानी कर रहे हैं। बीच में इस भूमि से जैनों के उच्छिन्न हो जाने और पीछे स्थानों को मनमाना प्राचीन नाम देकर तीर्थ बना लेने के बाद इसके लिए यह हिचकिचाहट स्वाभाविक है। भगवानपुर रत्ती का अर्थ है रत्ति परगने का भगवानपुर। भगवानपुर नाम के कितने ही गांव हैं । इसलिए यह विशेषण लगाना पड़ा। रत्ति नत्ति या ज्ञातृ का ही बिगड़ा रूप है। आजकल भी इस परगने में जथरिया भूमिधर बड़ी संख्या में रहते हैं। यह लिच्छिवियों की उसी ज्ञातृ-शाखा की सन्तान है, ज्ञातृ से ही जथरिया शब्द बना। महावीर भी काश्यप-गोत्री थे, और १. दृष्टव्य, श्री न० स० रामचन्द्र या, मैसूर, पृ० १४६ एवं १५८ २. भारत का इतिहास, पृ० १४१ ३. जैन बिबलियोग्राफ़ी (छोटेलाल जैन), वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका १६८ ८(vi) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभि नन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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