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________________ मंडली हर बात के प्रमाण मांगती है और यह चाहती है कि जो बात कही जाय वह ठीक हो और उसके विषय में जो विवाद किया जाय वह स्पष्ट और न्याययुक्त हो । जैन धर्म के विकास एवं अवरोध का इतिहास जानने के लिए यह खोज होनी चाहिए। (ई) (i) जिन बड़े-बड़े प्रदेशों में जैन धर्म किसी समय फैला हुआ था बल्कि बड़े जोर पर था वहाँ उसका विध्वंस किन-किन कारणों से हुआ, उनका पता लगाना हमारे लिए सर्वथा उपयुक्त है और यह खोज जैन विद्वानों के लिए बड़ी मनोरंजक भी होगी । (ii) इस विषय से मिलता-जुलता एक विषय और है जिसका थोड़ा अध्ययन किया गया है। वह दक्षिण का धार्मिक युद्ध है और खासकर वह युद्ध है जो चोलवंशीय राजाओं को मान्य शैवधर्म और उनके पहले के राजाओं के आराध्य जैन धर्म में हुआ था ! (उ) जैनों के महत्त्वपूर्ण भग्नावशेषों की जांच के लिए प्राचीन चीनी यात्रियों और विशेषकर हुएनसांग की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। उनकी मान्यता है कि हुएनसांग की यात्रा सम्बन्धी पुस्तक के बिना किसी पुरातत्वान्वेषी का काम नहीं चल सकता । जो जैन विद्वान् उपर्युक्त पुस्तकों से काम लेना चाहते है वह यदि चीनी भाषा न जानते हों, तो उन्हें पुरावशेषों की जांच के लिए अंग्रेजी या फ्रेंच भाषा सीखनी चाहिए। (ऊ) डॉ० स्मिथ ने सम्राट् कनिष्क सम्बन्धी एक कथा को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व महाराज कनिष्क ने एक बार जैन स्तूप को गलती से बौद्ध स्तूप समझ लिया था। ऐसी स्थिति में यदि आजकल के पुरातत्ववेत्ता जैन स्मारकों को बौद्ध स्मारक मान बैठते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है । डॉ० स्मिथ ने सन् १९०१ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'मथुरा के जैन स्तूप और अन्य प्राचीन वस्तुएं' का उल्लेख करते हुए कहा है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से सब विद्यार्थियों को मालूम हो गया कि बौद्धों के समान जैनों के भी स्तूप और घेरे किसी समय बहुलता से मौजूद थे । परन्तु अब भी किसी ने जमीन के ऊपर के मौजूद स्तूपों में से एक को भी जैन स्तूप प्रकट नहीं किया। मथुरा का स्तूप, जिसका हाल मैंने अपनी पुस्तक में लिखा है, बुरी तरह से खोदे जाने से बिल्कुल नष्ट हो गया है। मुझे पक्का विश्वास है कि जैन स्तूप अब भी विद्यमान हैं और खोज करने पर उनका पता लग सकता है। और स्थानों की अपेक्षा राजपूताने में उनके मिलने की अधिक संभावना है। - (ए) मेरे ख्याल में इस बात की बहुत कुछ संभावना है कि जिला इलाहाबाद के अन्तर्गत 'कोशम' ग्राम के भग्नावशेष प्राय: जैन सिद्ध होंगे -वे कनियम के मतानुसार बौद्ध नहीं मालूम होते यह ग्राम निस्संदेह जैनों का कौशाम्बी नगरी रहा होगा और उसमें जिस जगह जैन मन्दिर मौजूद हैं वह स्थान अब भी महावीर के अनुयायियों का तीर्थ क्षेत्र है । मैं कोशम की प्राचीन वस्तुओं के अध्ययन की ओर जैनों का ध्यान खासतौर पर खींचना चाहता हूँ। मैं यह दिखाने के लिए काफी कह चुका हूँ कि इस विषय को निर्णय होना बाकी है । बहुत सी बातों का (ऐ) यदि कोई जैन कार्यकर्त्ता, जो पर्याप्त योग्यता रखता हो और जिसे जैन समाज से वेतन मिलता हो, सरकारी पुरातत्व विभाग में उसकी सेवाएं समर्पित कर दी जायं, तो वह बहुत काम कर सकता है । यह और भी अच्छा होगा कि ऐसे कई कार्यकर्त्ता सरकारी अधिकारियों के निरीक्षण में काम करें। दक्षिण भारत की प्रारम्भिक भाषाओं में जैनाचार्यों के स्वर्णिम योग को दृष्टिगत करते हुए सहज रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्मगुरु आरम्भ से ही लोक जीवन के उन्नयन में क्रियाशील थे। जैन आचार्यों के प्रभाव से दक्षिण भारत में अनेक सांस्कृतिक केन्द्रों एवं पाठशालाओं की स्थापना हुई। चीनी यात्री युवान च्वांग के यात्रा विवरण में कांची के जैन वैभव का विशेष वर्णन मिलता है। जैन धर्मानुयायियों की कलाप्रियता एवं साहित्यिक गतिविधियों के प्रभाव से ही दक्षिण भारत में मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण एवं शैक्षणिक संस्थाओं का विकास सम्भव हो पाया है। प्रो० एस० एस० रामास्वामी आयंगर के अनुसार - "दक्षिण भारत में मूर्तिपूजा और देव मन्दिर निर्माण की प्रचुरता का कारण जैन धर्म का प्रभाव है। मन्दिरों में महात्माओं की पूजा का विधान जैनियों ही का अनुकरण है।" इतिहास साक्षी है कि जैन धर्म में अम्तनिहित मूल्यों का प्रचार-प्रसार उदार एवं सर्वधर्म सद्भाव में विश्वास रखने वाले राज्यकाल में ही सम्भव हो पाया है । कट्टर शासकों के काल में जैन धर्मानुयायियों को वेदना का गरल पीना पड़ा है। कट्टर शैव सम्बन्दर की प्रेरणा से आठ हजार जैन कोल्हू में पेल दिए गए। अनेक जैन बसदि एवं स्तम्भों को अन्य धर्म के उपासना-गृह में परिवर्तित कर दिया गया। प्राचीन जैन भग्नावशेषों की बड़ी संख्या और उनकी उपेक्षा को देखते हुए अनेक अधिकारी विद्वानों ने इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'मैसूर' में श्री न० स० रामचन्द्र या ने मैसूर राज्य के उपेक्षित जैन वैभव की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा है- "शृंगेरी के आसपास अनेक जैन 'बसदि' मौजूद हैं, हालांकि वे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में ही हैं। सच पूछा जाये तो शृंगेरी जैन धर्म का एक गढ़ ही था।" जैनों के गढ़ के पतन के बाद जैनों के स्थान उजड़ कर जीर्ण-शीर्ण जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only = (v) www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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