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सम्मान मिला ।"" वास्तविकता यह है कि भारतीय सौन्दर्य शास्त्र के अन्तर्गत जैन कलाओं की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । सम्भवतया चीनी यात्रियों के माध्यम से जैन कलाओं का विश्व व्यापक प्रचार हुआ है ।
जैन धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अवसर्पिणी युग में भोगभूमि के अवसान और कर्मभूमि की रचना के सन्धिकाल में अयोध्या के अन्तिम मनु-कुलकर श्री नाभिराज के यहां जगज्जननी मरुदेवी की पवित्र कुक्षि से चैत्र कृष्ण नवमी के दिन जैन धर्म के आद्य तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का जन्म हुआ। श्री ऋषभदेव विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न सिद्ध पुरुष थे । उन्होंने कर्मयुग के आरम्भ में असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्यारूप लौकिक षटकर्मों का प्रवर्तन किया। भगवान् ऋषभदेव द्वारा उत्प्रेरित श्रमण संस्कृति को कालान्तर में तेईस तीर्थंकर - अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त शीतलनाथ, धेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्दुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ने अनुप्राणित किया ।
जैन पुराणकारों ने तीर्थकरों की आयु एवं शरीर की ऊंचाई के संबंध में विस्तार से विवेचन किया है। डॉ देवसहाय त्रिवेद ने जैन अनु श्रुतियों के आधार पर भगवान् ऋषभदेव के परिनिर्वाण का काल ४१ ३४५२६३० ३०८२०३१७७७ ४६ ५१२१ के आगे ४५ बार & लिखकर वर्ष पूर्व प्रकट किया है । शायद ७० अंकों की विशद संख्या को दृष्टिगत करते हुए इतिहासकारों ने तीर्थंकर परम्परा के ऐतिहासिक अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। भारतीय पुराणशास्त्र में उल्लिखित इस प्रकार की पौराणिक गुत्थियों के समाधान के लिए इतिहासवेत्ताओं और गणितवेत्ताओं को विशेष ध्यान देना चाहिए। इस सन्दर्भ में आचार्य रजनीश का विचार दृष्टव्य है : - "महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अन्तिम व्यक्ति है, जिस संस्कृति का विस्तार कम-से-कम दस लाख वर्ष है। जैन तीर्थकरों की ऊंचाई- शरीर की ऊंचाई बहुत काल्पनिक मालूम पड़ती है। उनमें महावीर भर की ऊंचाई आदमी की ऊंचाई है। बाकी तेईस तीर्थंकर बहुत ऊंचे हैं। इतनी ऊंचाई नहीं हो सकती। ऐसा ही वैज्ञानिकों का अब तक का ख्याल था, लेकिन अब नहीं है । "3
जैन धर्म के आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम तीन तीर्थंकरों --- भगवान् नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी के अस्तित्व को अब ऐतिहासिक रूप से स्वीकार किया जाने लगा है। वैदिक साहित्य के आद्य धर्मग्रन्थ ऋग्वेद एवं तैत्तिरीयारण्यक में वातरसना मुनि का उल्लेख इस प्रकार है
तैत्तिरीयारण्यक की प्रस्तुत पंक्ति के सन्दर्भ में ऋग्वेद की उपरोक्त गाथा का विवेचन और जैन मुनि की आचार्य परम्परा से उसकी तुलना से यह सिद्ध हो जाता है कि वैदिक साहित्य में प्रयुक्त शब्द - वातरशनमुनि वातरशन श्रमण, श्रमण संस्कृति की प्राग्-वैदिकता के प्रमाण हैं । श्रीमद्भागवत में ऋषभ को जिन श्रमणों के धर्म का प्रवर्तक बताया गया है और उनकी प्रशस्ति इन शब्दों में की गई है— 'धर्मान्दर्शयति कामो वातरशनानां धमणानामुषीणामूयमन्धिनां शुक्लवा तनुभावतार' अर्थात् भगवान् ऋषभ श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गावसते मला ।
वातानुप्राणि यन्ति यद्देवासो अविधत । (ऋग्वेद म० १०० ११, सूत्र १३६ । २ ) वातरसना हवा ऋषयः भ्रमण कार्यमन्विनो वभूवः (तंत्तिरीयारण्यक २ / ७ /१, ५० १३७)
प्राचीनकाल में भगवान् ऋषभदेव की लोकमान्यता को दृष्टिगत रखते हुए काका कालेलकर साहब ने ठीक ही कहा है-ऐसा दिखाई देता है कि हिन्दू समाज को संस्कारी बनाने में ऋषभदेव का बड़ा भारी हिस्सा था। कहा जाता है कि विवाह व्यवस्था, पाकशास्त्र, गणित, लेखन आदि संस्कृति के मूल बीज ऋषभदेव ने ही समाज में बोये थे ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए सुप्रसिद्ध प्राच्य वेत्ता डॉ० हैनरिक जिम्मर की मान्यता है कि जैन धर्म आर्येतर धर्मों में प्राचीनतम है। उनकी यह मान्यता अधिकतर प्राच्यविदों की इस मान्यता के विपरीत है जो भगवान् महावीर को भगवान् गौतम बुद्ध का समकालीन और जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं। स्वयं जैन धर्मानुयायियों की भांति डॉ० जिम्मर की मान्यता है कि महावीर जैन तीर्थंकरों की श्रृंखला में अन्तिम तीर्थंकर थे न कि जैन धर्म के संस्थापक डॉ० जिम्मर जैन मतानुयायियों की इस मान्यता से भी सहमत हैं कि उनका धर्म आर्यों से पूर्व द्रविड़ों के समय से चला आ रहा है।
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१. श्री शिशिर कुमार घोष, नेहरू अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३९० ३३१
२. डॉ० देवसहाय त्रिवेदी बिहार, पृ० १४५
३. आचार्य रजनीश, महावीर वाणी- भाग १, पृ० ५
४. जैन विवलियोग्राफी छोटेलाल जैन) वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका १२२०
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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