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________________ जैन इतिहास, कला और संस्कृति जैन धर्म की उदात्त लोकमंगल की पृष्ठभूमि का विशद विवेचन करते हुए सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक काका साहब कालेलकर की मान्यता है कि त्रिविध अहिंसा - स्याद्वाद रूपी बौद्धिक अहिंसा, जीवदया रूपी नैतिक अहिंसा और तपस्या रूपी आत्मिक अहिंसा का आदर्श सिद्धान्त प्रस्तुत करने वाला धर्मं ही विश्व धर्म हो सकता है। उनकी दृष्टि में जैन धर्म विश्व धर्म है और वर्तमान सन्दर्भ में यह धर्म मिशनरी धर्म होने के लायक है। विश्व के किसी भी देश का, किसी भी वंश का मनुष्य तीर्थंकरों की वाणी का अनुसरण करके जैन बन सकता है। इतिहास साक्षी है कि जैन धर्मानुयायियों ने स्वयं को विश्व-समाज, राष्ट्रीय धारा और लोक जीवन से कभी पृथक् नहीं किया और न ही अपने को प्रस्थापित करने के लिए आग्रहवादी दृष्टि अपनाई। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य जैन इतिहास, कला और संस्कृति के उन आयामों को उद्घाटित करना है जिनसे विश्व संस्कृति एवं राष्ट्रीय जीवन अनुप्राणित हुआ है। इतिहास, कला और संस्कृति से हमारा अभिप्राय पूर्व परम्परा, सौन्दर्य चेतना और मानवीय सहिष्णुता से है । सोवियत संघ में प्राच्य विद्याओं के जनक माननीय इ० मिनायेव ने भारत के गौरवमय अतीत का आख्यान करते हुए कहा है- " किसी भी आत्मिक विकास का मर्म हम उसके ऐतिहासिक विकास की सम्पूर्णता में ही देख सकते हैं और उसे केवल तभी समझ सकते हैं, जबकि इस विकास प्रक्रिया पर हम इसकी भ्रूणावस्था तक दृष्टिपात करते हैं और जब इस तरह इसके स्रोत प्रकट होते हैं।"" इवान मिनायेव ने वैदिक, बौद्ध और जैन धर्मों का अध्ययन उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं किया। उनके अनुसार यदि शोधकर्ता विभिन्न धार्मिक मतों के बीच आनुवंशिक संबंध की ओर तथा उनके पारस्परिक ऐतिहासिक संबंधों की ओर, जिन्होंने विभिन्न धारावों का सूत्रपात किया, उचित ध्यान नहीं देगा, तो धर्म का इतिहास एकतरफा ही रहेगा। १२ प्राचीन विश्व में किन्हीं कारणों से इतिहास लेखन की क्रमबद्ध परम्परा का विकास नहीं हो पाया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की दृष्टि में, "भारतवर्ष के निर्मल आकाश में इतिहास चन्द्रमा का दर्शन नहीं होता, क्योंकि भारतवर्ष की प्राचीन विद्याओं के साथ इतिहास का भी लोप हो गया। कुछ तो पूर्व समय में शृंखलाबद्ध इतिहास लिखने की चाल ही न थी और जो कुछ बचा-बचाया था वह भी कराल काल के गाल में चला गया ।" वस्तुतः इतिहास लेखन की परम्परा अत्याधुनिक है और साथ ही समग्र चेतना के विशदीकरण हेतु तुलनात्मक संस्कृतियों के अध्ययन पर बल देती है । साहित्यानुरागी जैन सन्तों के समर्थ कृतित्व के कारण विगत २५०० वर्ष के भारतीय इतिहास को समझने के लिए उपयोगी सामग्री उपलब्ध होती है । स्व ० डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने जैनों की ऐतिहासिक चेतना की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि जैनों ने प्रायः २५०० वर्ष की संगणना का हिसाब भारतीयों में सबसे अच्छा रखा है। सम्पादकीय 1 भारतीय कला की यदि कोई परिभाषा की जाए तो वह ईश्वर की सुन्दर सृष्टि का कृत्रिम प्रारूपण होगा। भारतीय कलाकार अध्यात्म दर्शन की आत्मानुभूति से उसी प्रकार कला का सर्जन करता आया है जैसे एक दार्शनिक साधक मुक्ति के लिए साधना करता है। सत्यं शिवं, सुन्दरम् भारतीय कला की एक सन्तुलित एवं लोकप्रिय व्याख्या रही है जिसमें सत्य, सौन्दर्य और अध्यात्म तीनों का सम्मिलन हुआ है । इनमें से एक भी पक्ष यदि कम रह जाए तो कला विकृत हो जाती है। 'भारतीय कला की आत्मा और स्वरूप' शीर्षक निबन्ध में श्री शिशिर कुमार घोष की यह मान्यता रही है कि स्वाधीन मनुष्य ही कला की साधना कर सकता है । परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा समाज कला के वास्तविक मर्म को अभिव्यक्त करने में असमर्थ रहता है । उनके अनुसार - अगणित चीनी यात्री, जो उस युग में यहाँ के विश्वविद्यालयों में अध्ययन और गुहा-मन्दिरों के दर्शन के लिए आये, यहाँ के विचार और प्रभाव अपने साथ चीन ले गए जो वहाँ के वास्तु-चित्र और मूर्तिकला में प्रस्फुटित हुए। यही नहीं, वहाँ से वे प्रभाव जापान गये और वहां भी उन्हें वही १-२ ग० बोंदार्ग लेविन एवं विगासिन, भारत की छवि, पृ० १०६ जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only १ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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