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________________ हो जाते हैं, इस प्रकार भरत क्षेत्र के ६ खण्ड हो जाते हैं। दक्षिणार्ध भरत खण्ड के तीन खण्डों में से मध्य खण्ड का नाम 'आर्यखण्ड' हैं, जहां तीर्थकरादि जन्म लेते हैं,बाकी ५ खण्ड म्लेच्छ खण्ड है। दक्षिणार्ध भरत खण्ड की चौड़ाई २३८ र योजन, तथा पूर्व पश्चिम की ओर फैली जीवा की लम्बाई ६७४८१२ योजन है ।' रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नमय काण्ड के सहस्र योजन के पृथ्वीखण्ड में से एक सौ योजन ऊपर, तथा एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मध्य के ८०० योजन पृथ्वी पिण्ड में वाणव्यन्तर देव आदि रहते हैं। वाणव्यन्तर देव इस पृथ्वी पर क्रीड़ा विनोद हेतु विचरते रहते हैं। इसी प्रकार, पहली पृथ्वी के प्रथम व दूसरे भाग में भवनवासी देवो तथा पिशाच आदि देवों की स्थिति भी मानी गई है, जिसका विस्तृत निरूपण आगमों में द्रष्टव्य है। रत्नप्रभा पृथिवी से ७६० योजन की ऊंचाई पर ज्योतिष्क (तारा आदि ज्योतिष-चक्र ) देवों की स्थिति है। जम्बूद्वीप में दो चन्द्र तथा दो सूर्य तथा समस्त मनुष्य लोक में १३२-१३२ चन्द्र-सूर्य माने गए हैं।" (क) विज्ञान प्रेमियों की ओर से कुछ आपत्तियां आजकल विज्ञान की चकाचौंध का युग है। विज्ञान ने हमें अनेक भौतिक सुविधाएँ प्रदान कीं, और हम उसके दास हो गए। यही कारण है कि आज की नई पीढ़ी विज्ञान जगत् में प्रचलित मान्यताओं को तुरन्त स्वीकार कर लेती है, किन्त आगमों में निरूपित सिद्धान्तों पर श्रद्धा तभी करती है जब वह विज्ञान-समर्थित हो। आजकल विज्ञान-प्रेमी कुछ ताकिक व्यक्ति जैनागम-निरूपित पृथ्वी के स्वरूप पर अनेक आपत्तियां प्रकट करते हैं, जिनका समाधान भी यहां करना अप्रासंगिक न होगा। वे आपत्तियां इस प्रकार हैं (१) जैन आगमों के अनुसार, मध्यलोक की रत्नप्रभा पृथिवी का विस्तार असंख्य सहस्रयोजन का बताया गया है। जैन १. ति०प० ४/२६६-६७, लोकप्रकाश-१६/३६१, त० सू० ३/१० पर श्रुतसा० टीका, २. ति० प० ४/२६७, लोक प्रकाश-१६/४५, १६/२००-२०१, ४. लोक प्रकाश-१६/३७, जंबूद्दीव प० (श्वेता०) १/११, बृहत्क्षेत्रसमास-२६ जम्ब० प. (श्वेताः) १/११, लोक प्रकाश-१६/३८, जंम्बू० प० (दिग.) २/३१, त्रिलोकसार-७६६, बृहत्क्षेत्रसमास-३७, लोक प्रकाश-१२/१९३-१६४, पण्णवणा सूत्र-२/१०६, जीवाजीवा. सू. ३/११६ 'लोक प्रकाश-१२/२०१-२११, ८. लोक प्रकाश-१३/१-२, हरिवंश पु. ४/५६-६१, ६. (क) पण्णवणा सू. २/१०६-११९, जीवाजीवा. सू. ३/११६-१२१, (इमीसे रयणप्पभाए पूढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबा हल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अठहत्तरे जोयणसयसहस्से) । (ख) दिगम्बर-परम्परा में कुछ भिन्न मत है। इसके अनुसार रत्नप्रभा के तीन भागों में से प्रथम भाग के एक-एक हजार योजन क्षत्र को छोड़कर, मध्यवर्ती १४ हजार योजन क्षेत्र में किन्नरादि सात व्यन्तर देवों के तथा नागकुमारादि नो भवनवासियों के आवास हैं। रत्नप्रभा के दूसरे भाग में असुर कुमार भवनपति और राक्षस व्यन्तरपति के आवास हैं। (द्र० ति• प.. ३/७, राजवार्तिक-३/१/८ (तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्यपर्यधश्चककं योजनसहस्र परित्यज्य मध्यमभागेष चतुर्दशसु योजन सहस्रेषु ....)] १०. हरिवंश पु. ६/१, जम्बू० प० (दिग.) १२/६३, त. सू. ४/१२ पर श्रुतसागरीय टीका, जीवाजीवा. सू. ३/१६५, जम्बू०प० (श्वेता०) ७/१६५, ११. जीवाजीवा. सू. ३/१५३ १७७ (मंदरोद्देश), जंबू० प० (श्वेता.) ७/१२६, १६/६९-१०१, जंबूद्दोव प. (दिग.) १२/१४, त्रिलोकसार-३४६, हरिवंश पु. ६/२६, चन्द्रप्रज्ञप्ति श्वेता.) १/३/१२, भगवती सू. ६/१/२-५, समवायांग-६६/३३२, बृहत क्षेत्रसमास-३६५, ६४६. जैन धर्म एवं आचार १४३ Musi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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