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ठहरना एवं जल में बैठे रहने के सम्बन्ध में जानकारी मिली तो वे अपने सारे कार्यों को छोड़कर नाले की ओर दौड़े आए और श्रद्धापूर्वक महाराजश्री को कन्धों पर उठा लिया।
चीते से सामना
नवदीक्षित मुनि श्री देशभूषण जी संघ के एक ब्रह्मचारी के साथ श्रवणबेलगोल के निकट हसन के जंगलों में से जा रहे थे । मार्ग में एक भयानक चीता उनके सम्मुख आ गया । चीते को देखकर मुनिश्री ने महामन्त्र णमोकार का चिन्तवन किया। चीता भी एकटक शान्त भाव से उनके स्वर्णिम शरीर की ओर देखता रहा। संघ का ब्रह्मचारी तो यह सब दृश्य देख कर घबरा गया और भयभीत होकर समाधिस्थ मुनिश्री के शरीर से चिपट गया किन्तु अकस्मात् ही मुनिधी के तपोबल का दर्शन कर और उससे प्रभावित होकर वह चीता जंगल में ओझल हो गया ।
विष की प्रभावहीनता
आचार्य श्री देशभूषण जी पर्वतराज श्री सम्मेदशिखर जी की पावन वन्दना के उपरान्त भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाणस्थल श्री पावापुरी जी की धर्मयात्रा के निमित्त पधारे थे। श्री मन्दिर जी एवं ऐतिहासिक जल मन्दिर के दर्शन करने के उपरान्त आप प्राचीन भारत की शक्तिशाली राजधानी श्री राजगृही की ओर विहार कर रहे थे। मार्ग में 'बिहार शरीफ' नामक महत्त्वपूर्ण नगर भी पड़ा। बिहार शरीफ में ससंघ पहुंचते हुए सायंकाल का समय हो गया था, अतः शास्त्रीय मर्यादाओं के अनुरूप महाराजश्री सामायिक के निमित्त बैठ गए। अचानक बादल उमड़ आए, वेगवान आंधी चली, मूसलाधार वर्षा से रास्ते भर गए, सभी प्राणियों को प्रकम्पित उनके करता हुआ भीषण तूफान भी आ गया। ऐसे में अचानक एक भयंकर सर्प सामायिक में जड़वत् बैठे महाराजश्री की जांघ पर रेंगते हुए शरीर पर चढ़ने लगा । महाराजश्री ने उसे करुण दृष्टि से देखा । किन्तु आंख मिलते ही सर्प भयभीत हो गया और उसने मुनिश्री को अंगुली में काट लिया। प्रत्यक्षदर्शियों ने घबड़ाकर मुनिश्री से प्रश्न किया कि सर्पदंश से क्या आपको वेदना हो रही है। विष का प्रभाव अब कैसा है ?
आचार्यश्री भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के महानतम तपस्वी मुनि हैं। वे जैन मुनियों के परमाराध्य तीर्थराज के दर्शन करके आ रहे थे। मार्ग में उन्होंने भगवान् वासुपूज्य एवं भगवान् महावीर स्वामी की निर्वाण स्थली के भक्तिपूर्वक दर्शन किए थे और अब तीर्थकरों की धर्मदेशना के पावन स्थलों को नमन करने के निमित्त विहार कर रहे थे । अतः श्रावकों के प्रश्न पर आप केवल मुस्करा कर रह गए और एक महान् रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहा कि साधारण विष का अब हम पर कुछ प्रभाव नहीं होता ।
निष्प्रभावी सर्पदंश
सन् १९६२ में आचार्यची दक्षिण भारत से दिल्ली की ओर धर्मप्रभावना के लिए आ रहे थे। महाकाल की नगरी उज्जैन की यात्रा के पश्चात् वे शाजापुर की ओर बढ़ रहे थे। एक दिन दीर्घ शंका के लिए वे जंगल में गए। तभी सूखे पत्तों के ढेर में से लगभग दो हाथ लम्बा सांप निकला और महाराजश्री के पैर में लिपट गया। निर्भीक महाराजश्री ने सांप के क्रोध की चिन्ता न करते हुए उसे स्वयं ही पकड़ कर अपने से अलग कर दिया। झटका देने के कारण सांप उल्टा हो गया और उसने महाराजश्री के दाहिने तलवे में काट लिया। सांप के दांत पैर में गड़ जाने के कारण टूट गए और महाराजश्री के पैर से थोड़ा खून भी निकला। पैरों में जलन आरम्भ हो गई। आचार्यश्री ने अपने कमण्डलु का जल पैरों पर डाल दिया और महामन्त्र का जाप करने लगे । महामन्त्र के प्रभाव से सांप का विष स्वयं प्रभावहीन हो गया।
लोकोत्तर सिद्धियाँ
जैन धर्मानुयायियों की मान्यता है कि मुनिश्री में दीर्घकालीन साधना के कारण अनेक सिद्धियाँ स्वतः ही आ गई हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उनके पास 'वचन सिद्धि' है अर्थात् वे जिस किसी भी व्यक्ति को जो भी आशीर्वाद दे दिया करते हैं, वह शीघ्र ही फलीभूत हो जाता है। कुछ भक्तों की मान्यता है कि आचार्यश्री के साथ कुछ लोकोत्तर शक्तियां सदैव साथ चलती हैं और उनकी आज्ञाओं का पालन कर अपने को कृतार्थ समझती हैं। उनके द्वारा श्रद्धालुओं को दिये गए मन्त्र एवं कमंडलु के मन्त्रसिक्त जल से लाखों व्यक्तियों की समस्याओं एवं रोगों का सहज ही निवारण हो गया है ।
रेगिस्तान में पानी
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आचार्यश्री सन् १९७० में जयपुर की ओर चातुर्मास के लिए आ रहे थे। उन दिनों ज्येष्ठ का महीना था, भीषण गर्मी पड़
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्र
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