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गुफा के द्वार पर सिंह
मुनि श्री देशभूषण जी अपने प्रारम्भिक मुनि जीवन में श्रवणबेलगोल की पहाड़ी पर स्थित गुफाओं में धर्मध्यान एवं रात्रि निवास किया करते थे। आप साधना के निमित्त वहां उस गुफा को विशेष महत्त्व देते रहे हैं जहाँ बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में महामुनि श्री अनंतकीर्ति जी (निल्लीकार) ने अपच के कीर्तिमान स्थापित किये थे। एक रात्रि में उस गुफा के द्वार पर एक सिंह आकर बैठ गया। पर्वत पर पूजा की सामग्री एकत्र कर नीचे लाने के लिये मठ का उपाध्याय पर्वत पर गया हुआ था । सामग्री एकत्र कर वह वापिस लौट रहा था कि मुनिश्री की गुफा के बाहर वाली चट्टान पर हिंसक सिंह को देखकर वह भयभीत हो गया और उसके मुंह से वातावरण की शान्ति को भंग करती हुई करुण चीत्कार निकल पड़ी। मुनिश्री गुफा के द्वार पर आए और उपाध्याय की चीत्कार के रहस्य को समझ गये। सिंह से उनकी दृष्टि मिल गई । मुनिश्री ने तत्काल महामन्त्र णमोकार का चिन्तवन किया और समाधिस्थ हो गए । हिंसक सिंह उनके दर्शन कर जंगल में ओझल हो गया । प्रातःकाल यह ज्ञात हुआ कि भयभीत उपाध्याय सामग्री की थाली के साथ लुढ़कता हुआ कुशलतापूर्वक नीचे आ गया था !
वनराज से भेंट
सन् १९४० में मुनिश्री पदयात्रा करते हुए जैन वैभव के सुप्रसिद्ध केन्द्र हुम्मच से विद्या के आलय मूड बद्री की ओर जा रहे थे। सायंकाल हो जाने के कारण उन्होंने जंगल में ही सामायिक करने एवं रात्रि में ठहरने का निश्चय कर लिया। सामायिक के समय सहसा जंगल का राजा शेर वहां आया और उनकी ओर मुंह करके बैठ गया । समाधिस्य मुनिश्री को सामायिक की समाप्ति पर शेर की उपस्थिति का पता लगा। उस समय आप अविचल धैर्यमूर्ति के रूप में विराजमान रहे और महामन्त्र का मन ही मन पाठ करते रहे । लगभग २०-२५ मिनट के उपरान्त वनराज उनकी ओर विनीत मुद्रा में झुकते हुए मानो नमस्कार करके झाड़ियों में चला गया । आचार्यश्री प्रातःकाल तक उसी स्थान पर निरापद विराजमान रहे और जंगल के किसी भी हिसक प्राणी ने उनका कुछ भी अहित नहीं किया।
सर्पराज द्वारा वन्दना
सन् १९४० के आसपास मुनि श्री देशभूषण जी महाराज का पेटनन्द गांव (अमरावती) के निकट पधारना हुआ। इस गा में कभी जैन समाज के अनेक सम्पन्न परिवार रहा करते थे। किन्तु उस समय वहाँ केवल एक-दो जैन परिवार रह गए थे। गाँव में एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है । आवश्यक मरम्मत एवं देखभाल के अभाव में वह जीर्ण अवस्था को पहुंच गया है। मुनिश्री को गाँव के मन्दिरों से विशेष लगाव रहा है। एकान्त स्थल पर साधना करने में उन्हें आनन्द आता है । अतः आहार के पश्चात् आपने दोपहर को वहीं पर सामायिक सम्पन्न करने का निर्णय लिया। सामायिक के समय मन्दिर की दीवार से एक भयंकर काला नाग निकल आया और उनकी पीठ की तरफ बैठ गया। थोड़ी देर बाद कुछ श्रावक यह देखने आए कि महाराज का सामायिक समाप्त हुआ अथवा नहीं। श्रावकों की पदचाप अथवा किवाड़ों की ध्वनि सुनकर सर्पराज उनकी पीठ की तरफ से हटकर सुरक्षा की दृष्टि से उनकी पालथी मे आकर बैठ गया । महाराजश्री ने उपसर्ग जानकर महामन्त्र णमोकार का आश्रय लिया और भगवान् पार्श्वनाथ के चरित्र का मन ही मन गुणगान करने लगे। ग्राम निवासियों का कोलाहल सुनकर वह विकराल सर्प क्रोध से फण उठाकर खड़ा हो गया और कोलाहल शान्त होने पर सरकते हुए अपने स्थान पर जाने लगा। मुनिश्री की जय का उद्घोष सुनकर वह पुनः लौट आया और महाराजश्री के वक्षस्थल पर से होता हुआ उतर गया । ऐसा लगता था मानो लौटने से पूर्व उसने मुनिश्रो की भाव सहित वन्दना की थी ।
जल- बाधा से मुक्ति
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एक बार आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज गुलवर्गा से आलन्दा की ओर पदयात्रा करते हुए जा रहे थे । मार्ग में संध्या हो गई। जैन मुनि के लिए संध्या के समय सामायिक करने का शास्त्रीय विधान है। अतः गुनिश्री सुविधा की दृष्टि से एक नाले के पुल के निकट ठहर गए । सामायिक करते समय अचानक बादल छा गए और घनघोर वर्षा आरम्भ हो गई । वर्षा के जल से नाला चढ़ गया और महाराजश्री की छाती तक पानी आ गया । महाकाल के इतना सन्निकट आ जाने पर भी आचार्यश्री तपश्चर्या में तल्लीन रहे और मृत्यु का भय उन्हें प्रभावित नहीं कर पाया ।
वर्षा के कारण गहरा अन्धकार छा गया। आचार्यश्री शास्त्रीय मर्यादाओं के कारण रात्रि में विचरण नहीं कर सकते थे । अतः वह उस जल में एक पत्थर के सहारे रात्रि भर बैठे रहे । जब नाले के निकटवर्ती ग्राम निवासियों को आचार्यश्री का नाले के निकट
-कालजयी व्यक्तित्व
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