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वाय से, वायु को आकाश से ओतप्रोत बताता है। तैत्तिरीय उपनिषद् का वह कथन भी यहां मननीय हैं जिसके अनुसार आकाश से वायु का, वायु से अग्नि का, अग्नि से जल, का, तथा जल से पृथ्टी का उद्गम माना गया है।
[आकाश, वाय, आग की लपटें, जल-इनमें उत्तरोत्तर सघनता है। घनोदधि शब्द में आए हुए उदधि (जल-सागर) शब्द से, तथा जैनागमनिरूपित 'गोमूत्र'वत् वर्ण से इसकी जल से समता प्रकट होती है। सम्भव है, घनोदधि जमे बर्फ की तरह ठोस चट्टान जैसा हो। 'तनु वात' सूक्ष्म व तरल वायु हो, इसकी तुलना में अधिक सघन 'घनवात' आग की लपटों की तरह अधिक स्थल हो। घन यानी मेघ, मेघ में बाय बिजली का रूप धारण करती है, बिजली अग्नि का एक रूप है। इस दृष्टि से घनवात को 'अग्नि' के रूप में वणित किया गया प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध में तुलनात्मक अध्ययन-हेतु एक पृथक् शोध-पत्र अपेक्षित है।]
बौद्ध ग्रन्थों में भी ऐसा वर्णन मिलता है जिसके अनुसार पृथ्वी जल पर, जल वायु पर, तथा वायु आकाश पर प्रतिष्ठित
तीनों वातवलय वायुरूप ही हैं, किन्तु सामान्यत: वायु अस्थिर स्वभाववाली होती है, जब कि वे वातवलय स्थिर-स्वभाव वाले वायु-मण्डल हैं। इस दृष्टि से गीता का यह कथन जैन मत से साम्य रखता है कि लोक में वायु सर्वत्र व्याप्त है और वायु आकाश पर स्थित है। (५) मध्य लोक का आधार यह पृथ्वी
जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीपों व समुद्रों वाले मध्यलोक का आधार इस रत्नप्रभा का ऊपरी 'चित्रा' पटल है। मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तार वाला है। उसमें एक हजार योजन पृथ्वीतल से नीचे है, तथा निन्यानबे हजार योजन पृथ्वी से ऊपर है । इसी मेरु पर्वत से मध्यलोक की सीमा निर्धारित की जाती है।' अर्थात् मध्यलोक पृथ्वीतल से एक हजार योजन नीचे से प्रारम्भ होकर, निन्यानबे हजार योजन ऊंचाई तक स्थिर है।
जम्बूद्वीप आदि द्वीप, लवणोद आदि समुद्र, भरतादि क्षेत्र, मेरु एवं वर्षधर आदि पर्वत, कर्मभूमियां, भोगभूमियां, अन्तर्वीप आदि इस पृथ्वी (चित्रा पटल) पर अवस्थित हैं । ' मनुष्य लोक-इसी (रत्नप्रभा) पृथ्वी का एक बहुत ही छोटा भाग है। (६) हमारी पृथ्वी का आकार व स्वरूप
रत्नप्रभा-यह नाम अन्वर्थ है । इस पृथ्वी में रत्न, वैडूर्य, लोहित आदि विविध प्रभायुक्त रत्न प्राप्त होते हैं।'
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यदिद सर्वमप्सु ओतं च प्रोतं च.''आप ओताश्च प्रोताश्चेति वायौ वायुरोतश्चेदमन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति (बृहदा. उप० ३/६/१)। आकाशाद् वायुः वायोरग्निः, अग्नेरापः अद्भ्यः, पथिवी (तैत्ति. उप.११/२/२) पथिवी भो गोतम क्व प्रतिष्ठिता। पृथिवी ब्रह्मणा अब्मंडले प्रतिष्ठिता। अब्मंडलो भो गौतम क्व प्रतिष्ठतः । आकाशे प्रतिष्ठितः । आकाशं भो गौतम क्व प्रतिष्ठितम् । अतिसरसि ब्राह्मण 'आकाशं ब्राह्मण अप्रतिष्ठितमनालम्बनमिति विस्तर: (मिलिन्दप्रान-६८, अभिधर्मकोश-१/५ की व्याख्या में उद्धृत)। द्र० अभिधर्मकोश-३/४५-४७) । त्रिभिर्वायुभिराकीर्णः (ज्ञानार्णव-३३/४) । यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् (गीता-१०/६) । विशष्टि० २/३/५५२-५३, तनवातान्तपर्यन्तस्तिर्यग्लोको ब्यवस्थितः । लक्षितावधिरूवधिो मेरुयोजनलक्षया (हरिवंश पु० ५/१)। त०सू० ३/७-१०, लोकप्रकाश-१५/४-५ (रत्नप्रभोपरितलं वर्णयाम्गथ तत्र च । सन्ति तिर्यगसंख्येयमाना द्वीपपयोधयः । सार्कीद्धाराम्भोधियुग्मसमयः प्रमिताश्च ते)। ति०प० २/२०, सर्वार्थसिद्धि ३/१, राजवातिक ३/१/३, अन्वर्थजानि सप्तानां गोत्राण्याहरमूनि वै । रत्नादीनां प्रभायोगात प्रथितानि तथा तथा (लोकप्रकाश १२/१६३) ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य
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