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________________ (४) पृथ्वियों की स्थिति व आधार रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में प्रत्येक, तीन-तीन वातवलयों के आधार पर प्रतिष्ठित हैं। इनके नाम हैं - (१) घनोदधि, (२) घनवात, (३) तनुवात । ये वातवलय आकाश पर प्रतिष्ठित हैं। प्रत्येक पृथ्वी को ये वातवलय वलयाकार रूप से किए हुए हैं। पृथ्वी को घनोदधि, घनोदधि को घनवात, घनवात को तनुवात वेष्टित किए हुए है।" रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन काण्ड ( विभाग) हैं, – (१) खर, (२) पंक, (३) अब्बहुल । इनमें खरकाण्ड के १६ विभाग हैं। इस प्रकार, प्रथम पृथ्वी और द्वितीय पृथ्वी के मध्य निम्नलिखित प्रकार से ( ऊपर से नीचे की ओर ) स्थिति समझनी चाहिए :( १ ) रत्नप्रभा पृथ्वी का खर भाग ( १६ हजार योजन का ) " पंक भाग ( ८४ हजार योजन) (२) (2) अब्बहुल भाग ( ८० हजार योजन) रत्नप्रभा पृथ्वी का समस्त बाहुल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार (४) (पृथ्वी के नीचे) घनोदधि वालय (२० हजार योजन मोटा) 33 "" 17 (८) द्वितीय पृथ्वी " (५) घनवातवलय ( तनुवात वलय की तुलना में अधिक सघन ) ( २० हजार योजन मोटा ) " (६) तनुवातवलय ( घनोदधि व घनवात की तुलना में अत्यन्त सूक्ष्म व पतला ) (२० हजार योजन मोटा ) (७) आकाश योजन फलित होता है ।" (सर्वाधिक सपन राप्रभा ( इससे नीचे पुनः मनोदधि, धनवानुवात हैं।) * रत्नप्रभा से लेकर महातमः प्रभा तक सातों पृथ्वियां एक दूसरे के नीचे छत्रातिछत्र के समान आकार बनाती हुई स्थित हैं । इस सन्दर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से वृहदारण्यक उपनिषद् का वह कथन मननीय है जो समस्त धरातल को जल से, जल को Jain Education International १. हरिवंश पु० ४/४२, ४/३२, तिलो-१ / २६०-६१ ० ० भाष्य-३/१, ठाणांग-३ / २ / ३१२, ७/१४-२२, ८/१४,२/३/५०२, लोक प्रकाश-१२/१७७-१७८ ज्ञानार्णव २२/४-७ जीवाजीवाभिगम, ० २/२/७१-०६, २. रत्नप्रभा आदि सातों पुच्चियां ऊर्ध्व दिशा को छोड़ कर शेष नौ दिशाओं में पनोदधि से छूती हैं आठवीं पृथ्वी दसों दिशाओं में घनोदधि से छूती है (तिलोप-२ / २४) । वातवलयों के परिमाण आदि की जानकारी हेतु देखें- लोकप्रकाश-१२/७९-११० त्रिलोकसार १२३-१४२ ला प १/२७०-८२, २. तिलोय १० २/९ विलोकसार १४६, जीवाजीवाभिगम सू० २/१/६२. ठाणांग -१०/१६१-१६२, 1 ४ तिलोय प०२/१०, जीवाजीवा सू २ / १ / ६१, ठाणांग १०/१६२, लोकप्रकाश-१२/१७१, ५. लोकप्रकाण- १२/१६९-७० तिलोय प०२/२, जंबुद्दीय पत्ति (दिग०) ११ / ११६, ६. हरिवंश ० ४४०४९ लोकप्रकाश-१२/१६ जीवाजीवा० सू० ३/१/६०, ७. प्रत्येक बातवलय (वायुमण्डल) की मोटाई बीस हजार योजन है (त्रिलोकसार- १२४ तिलोष १० १२०० ) । वेताम्बर परम्परा में धनोदधि की मोटाई (मध्यात वाहत्य) बीस हजार योजन, पनवात एवं तमुवान की असंख्य सहल योजन मानी गई है (जीवाजीवाभिगम सू० ३/१/७२ लोकप्रकाश-१२/१८० १८३ १०२) प्रत्येक बातवलय के विष्कम्भ (प्रत्येक पृथ्वी के पार्श्व भाग में मोटाई) के सम्बन्ध में भी दोनों परम्परा मतभेद रखती है। इस सम्बन्ध में दिग० परम्परा के ग्रन्थ-तिलोयपण्णत्ति ( १/२७१), तथा त्रिलोकसार (१२५) जंबूदीय प० (दिग०) ११/१२२ आदि द्रष्टव्य हैं। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जीवाजीवाभिगम (सू० ३/१/७६) तथा लोकप्रका (१२/१६२-११०) आदि उल्लेखनीय हैं। ८. तिलोय प०२/२१, विषष्टि० २ / ३ / ४६१-६३, त० सू० ३ / १ भाष्य । आकासपइट्ठिए वाये, वायपइट्ठिए उदही, उदहीपइट्ठिया तसा वाया पाणा ( भगवती सू० १/६/५४) । जैन धर्म एवं आचार For Private & Personal Use Only १३५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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