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________________ आ० हेमचन्द्र ने धर्म-ध्यान को मोक्ष व स्वर्ग-दोनों का साधक बताया है ।। ध्यान के चार भेदों में तीसरा भेद 'धम ध्यान' है।' लोक के स्वभाव, आकार, तथा लोकस्थित विविध द्वीपों, क्षेत्रों समुद्रों आदि के स्वरूप के चिन्तन में मनोयोग केन्द्रित करना संस्थान-विचय' धर्मध्यान है। संस्थान-विचय' धर्म ध्यान के विशष फल इस प्रकार हैं-(१) लेश्याविंशुद्धि, तथा (२) रागादि-आकुलता में कमी। धर्मध्यान-रूप 'संस्थान-विचय' (लोक विचय) के चार भेद माने गए हैं - (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) रूपातीत ।' इनमें 'पिण्डस्थ' धर्मध्यान की पांच धारणाए हैं-(१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी, (३) मारुती, (४) वारुणी, (५) तत्त्वरूपवती। इनमें पार्थिवी धारणा के अन्तर्गत, साधक मध्यलोकवत्-क्षीरसमुद्र के मध्य जम्बूद्वीप को एक कमल के रूप में चिन्तन करता है। इस कमल में मेरु-पर्वत रूपी दिव्य कणिका होती है। (२) ध्यान से मिलती-जुली क्रिया 'भावना' या 'अनुप्रेक्षा' है। वे एक प्रकार की चिन्तन-धाराएं हैं जो वार-बार की जाती हैं। जब इसी चिन्तन-धारा में एकाग्र-चिन्ता-निरोध हो जाता है तो 'ध्यान' की स्थिति हो जाती है। अनुप्रेक्षाएं बारह हैं, उनमें 'लोकानप्रेक्षा' के अन्तर्गत, विश्व के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, जिसका फल चित्त-विशुद्धि, एवं ध्यान-प्रवाह की विरति को कम या समाप्त करना आदि है।' (३) लोक के स्वरूप को बार-बार चिन्तन करने से स्वद्रव्यानुरक्ति, परद्रव्य-विरक्ति, तथा समस्त कर्म-मल-विशुद्धि का आधार दृढ़ होता है। इसी दृष्टि से, आचारांग सूत्र में लोक-सम्बन्धी ज्ञान के अनन्तर ही विषयासक्ति के त्याग में पराक्रम करने का निर्देश है। (४) लोक-सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही, धर्म का निरूपण करना श्रेयस्कर माना गया है।" १. स्वर्गापवर्गहेतुर्धर्मध्यानमिति कीर्तितं यावत् (हैम-योगशास्त्र, ११/१) । २. आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि (त० सू० ६/२६, दिग० पाठ में ६/२८) । लोकसंस्थानस्वभावावधानं संस्थानविचयः । तदवयवानां च द्वीपादीनां तत्स्वभावावधानं संस्थानविचयः (राजवार्तिक, ९३६।१०)। लोकस्याधस्तिर्यग् विचिन्तयेदूर्ध्वमपि च बाहुल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे रूपिद्रव्योपयोगांश्च (प्रशमरतिप्रकरण, १६०) ॥ त्रिभुवनसंस्थानस्वरूप-विचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयो निगद्यते (त० सू० ६।३६ पर श्रुतसागरीय वृत्ति)। हैमयोगशास्त्र, १०/१४, आदि पुराण-२१/१४८-१४६, हरिवंशपुराण-६/१४०, ६३/८८, पाण्डव पु० २५/१०८-११०, ध्यानशतक-५२, ४. नानाद्रव्यगतानन्तपर्यायपरिवर्तनात् । सदासक्तं मनो नैव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ।। धर्मध्याने भवेद् भावः क्षायोपशमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः पीतपद्मसिताः पुनः (हैमयोग शास्त्र-११/१५-१६) ॥ ५. ज्ञानार्णव-३४/१, हैमयोगशास्त्र-७/८, ६. ज्ञानार्णव-३४/२-३, हैमयोगशास्त्र-७/६, ७. ज्ञानार्णव-३४/४-८, हैमयोगशास्त्र-७/१०-१२, ८. राजवार्तिक, ९/३६/१२ (अनित्यादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षा-व्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् )। त० सू० ६/७, हैमयोगशास्त्र-४/५५-५६, लोकस्य संस्थानादिविधियाख्यातः । तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्याध्य वस्यतः तत्त्वज्ञानादिविशुद्धिर्भवति (राजबार्तिक, ९७८) । १०. द्र० पंचास्तिकाय-१६७-१६८, समयसार-१०।१०५, ११. स्वतत्त्वरक्तये नित्यं परद्र व्यविरक्तये । स्वभावो जगतो भाव्यः समस्तमलशुद्धये (योगसार-प्राभूत-अमितगतिकृत, ६।३२) । १२. विदित्ता लोग वंता लोगसण्णं से मइयं परक्कमेज्जासि (आचारांग, ११३।१।२५) । १३. सूत्रकृतांग-२।६।२।४६-५० १३२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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