SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर वह अनन्तों बार जन्म-मरण के चक्र से गुजर चुका है।' उस चक्र से छूटने के उपाय को जानने हेतु वह सतर्क हो सकता है । भोगभूमि, कर्म भूमि, म्लेच्छ भूमि, नरक भूमि - इन सब के स्वरूप को जानकर साधक पुण्य पाप के सुफल - दुष्फलादि से सहज परिचित हो जाता है, और असत् कर्मों से निवृत्त होता हुआ सत्कमों की ओर अग्रसर हो जाता है। कर्म-भूमि में भी यहाँ उनके निवासियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त, उसकी यह सहज आकांक्षा उदित होगी ही, कि असंख्य प्राणियों में पुरुषोत्तम - 'अर्हत्' आदि की स्थिति क्यों न प्राप्त की जाय । संक्षेप में, इस पृथ्वी के स्वरूपादि ज्ञान से मनुष्य को उसकी अनन्त यात्रा का अतीत, वर्तमान व भविष्य स्पष्ट हो जाता है। वह अपने निरापद गन्तव्य का निर्धारण कर सकते में समर्थ होता है। इसीलिए आचार्य विधान तत्वाश्लोकवातिक में प्रतिपादित किया है कि समस्त लोक का, तथा पृथ्वी पर स्थित जम्बूद्वीपादि का निरूपण शास्त्रों में न हो, तो जीव अपने स्वरूप से से ही अपरिचित रह जाएगा । ऐसी स्थिति में, आत्म-तत्त्व के प्रति श्रद्धान, ज्ञान आदि की सम्भावना ही समाप्त हो जाएगी । अतः आचार्य विद्यानन्द ने परामर्श दिया है कि हम सब जैन आगमों का, तथा उसके ज्ञाता सद्गुरुओं का आश्रय लेकर किसी भी तरह, मध्य लोक का परिज्ञान तथा उस पर विचार-विमर्श करें। (२) जैन परम्परा में सृष्टि-विज्ञान का आध्यात्मिक महत्त्व यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक परम्परा में भी उक्त चिन्तन व विमर्श की प्रेरणा ऋषियों द्वारा दी गई है। अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा गया है कि हमें अपने अन्दर की सत्ता के साथ-साथ बाह्य सत्ता के स्वरूप की भी छानबीन करनी चाहिए। * जैन परम्परा में भी सृष्टि - विज्ञान की चर्चा तात्त्विक व धर्म चर्चा के रूप में मान्य है। जैन सृष्टि-विज्ञान भौतिक विज्ञान की सीमित परीक्षण पद्धति पर आधारित नहीं, वह तो सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव के स्वतः तपः- साधना द्वारा अधिगत लोकालोकज्ञता में, स्पष्ट व प्रत्यक्षता, झलकते हुए समस्त बाह्य विश्व का निरूपण है । " जैन परम्परा में सृष्टि-विज्ञान का आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है - इसके स्पष्ट प्रमाण निम्नलिखित हैं : (१) मोक्ष का प्रमुख साधन ध्यान है। ध्यान से संवर, निर्जरा व मोक्ष - तीनों होते हैं । ध्याता को मोक्ष यदि न भी प्राप्त हो, पुण्यास्रव तो सम्भावित है ही । अस्तु, पुण्यास्रव की स्थिति में भी ध्याता को परम्परया मोक्ष भी मिलेगा। इसलिए, १. २. ३. ५. ७. सो को विरथ देसो लोवालोस्स गिरवसेसस्स जन्म न सम्यो जीवो जादो मरिदो व बहुवारं (कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ६८ ) । तदरूप] जीव-तत्त्वं न स्वात् प्ररूपितम् विशेषेणेति तान बढाने न प्रसिद्यतः । तन्निबन्धनमनुग्मं चारित्रं च तथा क्व नु । मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्त्वविशेषवाक् (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सू० ३/३६, खंड-५, पृ० ३६६ ) ।। तेषां हि द्वीपसमुद्र विशेषाणामप्ररूपणे मनुष्याधाराणां नारकतिर्यग्देवाधाराणामप्यप्ररूपणप्रसंगान्न विशेषेण जीवतत्त्वं निरूपितं स्यात्, तन्निरूपणाभावे च न तद्विज्ञानं श्रद्धानं च सिद्ध्येत्, तद्-असिद्धी श्रद्धानज्ञाननिबन्धनमक्षुण्णं चारित्रं च क्व नु सम्भाव्यते ? मुक्तिमार्गश्च स्वयम् ? शेष-अजीवादितत्ववचनं च नैवं स्यात् । ततो मुक्तिमागोंपदेशमिच्छता सम्यग्दर्शनशान पारित्राण्युपगन्त व्यानि तदन्यतमापाये मुस्तिमाननुपपत्तेः तानि चाभ्युपगच्छता तद्विषयभावमनुभवत् जीवतत्वमजीवादितत्त्ववत् प्रतिपत्तव्यम् । तत्प्रतिपद्यमाने च तद्विशेषा आधारादयः प्रतिपत्तव्या: ( वहीं, पृ० ३६९ ) ।। द्वीपसमुद्रपर्वत क्षेत्रसरित्प्रभृतिविशेषः सम्यक् सकलनगमादिनयेन ज्योतिषा प्रवचनमूलसूत्रैर्जन्यमानेन कथमपि भावयद्भिः समः स्वयं पूर्वापरशास्त्रापर्यालोचनेन प्रवचनपदार्थविदुपासनेन च अभियोगादिविशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेय (वहीं, पृ० ४८६, ० सू० ३/४० पर श्लोकवातिक) (तुलना-संशीतिः प्रलयं प्रयाति सकला भूलोकसम्बन्धिनी - हरिवंशपुराण - ५ / ७३५) । कोहं कथमिदं कि वा कथं मरणजन्मनी विचारान्तरे वे महत्तत् फलमेष्यति (अन्नपूर्णोपनिषद्, १/४०) ।। ८. ६. तपोजातीयत्वात् ध्यानानां निर्जरा कारणत्वप्रसिद्धि (राजवातिक २/३/३) कुरु जन्माधिमत्येतुं ध्यानपोतावलम्बनम् (ज्ञानाव ३ / १२) | मयोगशास्त्र - ४ / ११३, पंचास्तिकाय - १ / २ | शुभध्यानफलोद्भूतां वयं त्रयसम्भवाम् निर्विशन्ति नरा नाके मायान्ति परं पदम् (शानार्गव - ३ / २२ ) । होति हासवर्सवरणिजराम राई विपुलाई झाणवरस्स फलाई, सुहागबंधीगि धम्मस्स (धवना - १२ / ५४ २६ / ५६ ) ।। हेमयोग शास्त्र१०/१-२१ शिलापुरुषचरित २/३/८०४, स्वशुद्द्धात्मभावनावनेन संसार स्थिति स्तोकं कृत्वा देवलोक गच्छति तस्माद् आगत्य मनुष्यभवे रत्नभावनया संसारस्थिति स्तोकं कृत्वा पञ्चान्मोक्षं गताः । तद्भावे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति (द्रव्यसंग्रह ५७ पर टीका हेम- योगशास्त्र १०/२२-२४, जैन धर्म एवं आचार १३१ " त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितम्, साक्षाद् येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि ( अकलंकस्तोत्र, १ ) । सालोकानां त्रिलोकानां यद् विद्या दर्पणायते (रत्नकरण्ड- १ / १) लोकप्रकाण - ३ / २३४-३५, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy