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________________ का त्याग कर सकते हैं, और कुछ विरले त्यागी जीव वनस्पति-सेवन का सर्वथा त्याग भी कर सकते हैं। मूल सिद्धान्त है अपव्यय का त्याग, सेवन में सतर्कता, वनस्पति जीवों के जीवन चक्र को कायम रखना तथा उपयोग के बदले में प्रकृति को क्षतिपूर्ति के रूप में प्रतिदान करना। एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बाद-विकास-क्रम में त्रस जीव आते हैं जिन्हें द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय की श्रेणियों में विभक्त किया गया है और उनमें भी विकासक्रम की अनेक कोटियां परिभाषित की गई हैं। जैनाचार के अनुसार किसी भी त्रस जीव की हिंसा का पूर्ण निषेध किया गया है। जैन श्रावक तथा श्रमण से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने दैनिक जीवन व्यवहार को इस प्रकार संयत रक्खे जिससे कि छोटे से छोटे कीड़े-मकोड़े का भी वध न हो। जैन श्रावक न मच्छरों को मारता है, न खटमलों का घात करता है; न चूहों को नष्ट करता है, न छिपकलियों की हिंसा करता है; न सांप को पकड़वाता है और न नेवले से उसकी लड़ाई करवाता है। वह न आखेट के लिए वन्य पशुओं को मारता है और न आत्मरक्षा-हेतु हिंसक पशुओं का वध करता है। वह अपने भोजन के लिए वनस्पति जीवों की जितनी हिंसा अनिवार्य है उसे विवेक के साथ करता है, परन्तु अपने भोजन एवं स्वाद हेतु किसी त्रस जीव का घात नहीं करता । चारे-खेती की रक्षा हेतु अथवा आत्मरक्षा हेतु, भय हेतु अथवा प्रतिशोध हेतु वह जान बूझकर किसी त्रस जीव की हिंसा नहीं करता। सभी त्रस जीव भी इस सृष्टि की साइकिल को सुचारु रूप से चलते रहने में सहायक होते हैं। निसर्ग की इस व्यवस्था में सभी जीवों का अपना स्थान है। प्रकृति के नियमानुसार अपने कर्मों के अनुरूप वे स्वयं एक-दूसरे को नष्ट कर देते हैं। मनुष्य संज्ञी जीव है अत: उसे जानबूझकर हिंसा नहीं करनी है परन्तु सृष्टि के अन्य प्राणियों में जो कर्मानुबन्ध के अनुसार हिसा होती है वह प्रकृति की साइकिल को चलाए रखने में मदद करती है। इस प्रकृत हिंसा से मनुष्य अप्रभावित रहता है। आज हम कुछ प्राणियों को मनुष्य का शत्रु मानते हैं। मक्खी और मच्छरों को रोगों का संवाहक माना जाता है। चूहे हमारे शान्य को नष्ट करने वाले माने जाते हैं । सांप तथा अन्य विषैले प्राणी प्राणघातक माने जाते हैं । टिड्डीदल फसलों का शत्रु कहा जाता है। हिंसक वन्य पशु हमारे घरेलू पशुओं को उठा ले जाते हैं, अत: वे भी मनुष्य के शत्रु कहे जाते हैं। - मनुष्य के शत्रु कहे जाने वाले इन जीवों का भी हमारी सृष्टि में अपना स्थान है। इस जैविक चक्र में हम जहां किसी कड़ी को नोट देते हैं, वहीं हिंसा का चक्र आरम्भ हो जाता है और फिर भी हम आपदाओं से पार नहीं पा सकते। नदी में रहने वाले मगरमच्छ को मारने से मछलियां तो शायद कुछ बच जाएं परन्तु अन्य अनेक नुकसानदेह प्राणी भी बच जाते हैं। रोगग्रस्त मछलियों को मार देने से जल को दषित करने वाले कीट-कृमि शेष रह जाते हैं, और पानी सड़ान्ध मारने लगता है । सांप चूहों को खाता है और यदि सांपों को नष्ट कर दिया जाए तो चहों की संख्या बढ़ जाएगी और यदि चूहे नष्ट हो जाएंगे तो उनके भोज्य अनेक कीड़े-मकोड़े हमारे जीवन को दूभर बना देंगे। प्रकृति की व्यवस्था में सब जीवों का अपना स्थान है तथा यदि प्रकृति को अपना काम मनुष्य के हस्तक्षेप के बिना करने दिया जाए तो सृष्टि-चक्र सुचारु रूप से चलता रह सकता है। हमने अपने अज्ञान, अहंकार तथा लिप्सा के वशीभूत होकर कुछ वन्य पशुओं का नामोनिशान मिटा दिया। प्रकृति के साथ मनुष्य का यह सबसे क्रूर व्यवहार था। अब कुछ जीव-शास्त्रियों का ध्यान इस तरफ आकृष्ट हुआ है कि सिंह, वानर, हाथी, गोडावण, मोर आदि कुछ प्राणियों के संरक्षण की आवश्यकता है। जैन मतानुसार तो सभी प्राणि-वंश को कायम रखने की आवश्यकता है क्योंकि ये भी हमारे पर्यावरण को जीवित रखने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य के जीने लायक बनाए रखने हेतु तथा समाज में संतुलन एवं समानता कायम करने के लिए महारंभिक कार्यों पर रोक लगाना आवश्यक है। पश्चिम के जो देश औद्योगीकरण की चरम सीमा पर पहुंच गए हैं वे अब अनुभव करने लगे हैं कि औद्योगिक उत्पादन की गति को मन्द करने की आवश्यकता है तथा जन-समुदाय को अपनी उपभोग-वृत्ति पर नियन्त्रण करने का समय आ गया है, अन्यथा मानव-सृष्टि नष्ट हो जाएगी। महारंभ के स्थान पर विकेन्द्रित उत्पादन की तरफ पश्चिमी देश धीरे-धीरे उन्मुख हो रहे हैं। गांधीवादी अर्थ-व्यवस्था में इसी विकेन्द्रीकरण की नीति को भारत के लिए श्रेयस्कर माना गया है। भारतवर्ष बहुल जनसंख्या वाला देश है। इसकी अर्थव्यवस्था में जनशक्ति के उपयोग को प्रधानता मिलनी चाहिए। जो काम मनुष्य की शक्ति से परे हों, अथवा जिन कामों से कुछ वर्गों का शोषण होता हो, ऐसे कामों के लिए यन्त्रों का प्रयोग मान्य हो सकता है, परन्तु जन-शक्ति एवं पशु-शक्ति को बेकार बनाकर निरीह अवस्था में छोड़ देने वाले यन्त्रों का प्रयोग 'महाहिंसा' की कोटि में आता है, जिसका परिहार करना ही उचित है । बड़े उद्योगों की स्थापना की होड़ अब रुकनी चाहिए तथा उनकी भी जितनी क्रियाओं का विकेन्द्रीकरण हो सके उतना करना चाहिए । समाज में व्याप्त विशृंखला तथा मानवीय शोषण को मिटाने का एक मार्ग विकेन्द्रीकरण है। सत्य का स्वरूप तथा अनेकान्त मार्ग सत्य-कथन दो रूपों में अभिव्यक्त होता है। कथन तथ्यात्मक होता है अथवा व्याख्यात्मक । जब हम किसी वस्तु, घटना, क्रिया जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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