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है तो बदले में उसे कुछ देना भी होता है। प्रकृति का आधार शोषण नहीं अपितु सहयोग है। वृक्ष के फल, फूल और लकड़ी उतनी ही उपयोग में ली जानी चाहिए जितनी कि पुनर्व क्षारोपण द्वारा पुनस्स्थापित की जा सके। वनों के अविचारी विनाश के फलस्वरूप हमारे वायुमण्डल में जो असंतुलन आया है उससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। भारत के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि है तो कुछ में अनावृष्टि अथवा न्यूनवृष्टि । इसका एक कारण वन-सम्पदा का अविचारी दुरुपयोग रहा है । वनों के कारण केवल वर्षा ही आकृष्ट नहीं होती थी अपितु जल संरक्षण भी होता था और बाढ़े भी रुकती थीं और वायु-मण्डल मनुष्य जीवन के लिए स्वास्थ्यकारी रहता था। हमारा ध्यान पुन: एक बार इस ओर आकृष्ट हुआ है। इस विचार को शुद्ध बौद्धिक आधार पर ग्रहण करने की अपेक्षा इसे श्रद्धासमन्वित बनाने की आवश्यकता है। वन-संरक्षण एवं वृक्षारोपण-दोनों ही आज के जीवन की आवश्यकताएं हैं।
जैन आचार के अनुसार प्रत्येक महारम्भ महाहिंसा को जन्म देता है क्योंकि महारम्भ (Large Scale Enterprise) जिस गति से प्राकृतिक साधनों को नष्ट करता है उस गति से उसकी सम्पूर्ति नहीं करता। पृथ्वी के गर्भ में नये खनिजों का निर्माण भी होता है और उनको मनुष्य अपने उपयोग के लिए बाहर भी निकालता है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप पृथ्वी के गर्भ को हमने इतना खोखला बना दिया है कि खनिजों की स्वाभाविक वृद्धि की शक्ति लगभग नष्ट होती जा रही है। आज खनिज तेलों का अभाव ही हम अनुभव कर पा रहे हैं, परन्तु यदि इसी गति से लोहा, कोयला, ताम्बा आदि अन्य खनिज भी निकाले जाते रहे तो पृथ्वी वन्ध्या हो जाएगी। जैन आचार संहिता के अनुसार खनिजों को निकालने की गति मन्द करने तथा खाली की गई खदानों का पुनरुपचार करने की आवश्यकता है।
कृषि कर्म में हमने इस देश में यन्त्रीकरण का कुछ वर्ष पूर्व ही आरम्भ किया गया है। कृषि की उपज बढ़ाने के लिए हमने उन्नत बीज, रासायनिक खाद तथा यान्त्रिक उपकरणों का प्रयोग आरम्भ किया परन्तु इनमें भी महारम्भ की आशंका व्याप्त हो गई है। हमारे पशु-धन-संयुक्त कृषि कर्म में प्राकृतिक संतुलन कायम रखने की प्रक्रिया संनिहित थी। पशुओं का गोबर खाद का काम करता तथा मनुष्य के खाने लायक सामग्री के बाद जो घास, फूस, चूरी, खली आदि बचे रहते उसे पशु आहार के रूप में प्रयुक्त किया जाता । अब यान्त्रीकरण के फलस्वरूप ट्रैक्टर उस खनिज तेल का उपभोग करता है, जो शनैः शनैः नष्ट होता जा रहा है तथा उपउत्पाद्य के रूप में वायु मण्डल को दूषित करने वाला धुंआ प्रदान किया जाता है। इस प्राकृतिक असंतुलन के कारण कुछ समय के लिए अनाज तो शायद विपुल मात्रा में मिल जाए परन्तु वायुमण्डल दूषित हो रहा है, पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति शनैः शनैः घट रही है, दूध-दही का अभाव हो रहा है, पशु-धन क्षीण होता जा रहा है और स्थिति अब ऐसी आ गई है कि "डीजल" की कमी का प्रभाव कृषि पर भी आने लगा है । जैन आचार के अनुसार शस्य-वृद्धि, भोजन-लिप्सा पर संयमन, पशु संवर्धन तथा पृथ्वी की उपजाऊ-शक्ति के संरक्षण का कार्य साथ-साथ चलना चाहिए।
___ वैज्ञानिक प्रगति के कारण जल के अपव्यय तथा प्रदूषण की प्रक्रिया भी आरम्भ हुई। जिन क्षेत्रों में जलाभाव थे उन क्षेत्रों के अभाव को हम तो पूरी तरह दूर नहीं कर पाए परन्तु जहां प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध था उसका अपव्यय भी खूब होने लगा, तथा बड़े-बड़े कारखानों की गन्दगी ने उन जलाशयों को प्रदूषित कर दिया। परिणामस्वरूप जल के जीव, जल में व्याप्त सूक्ष्म, बादर तथा त्रस जीवों की जो अ-विचारी हिंसा हुई उसके फलस्वरूप परिवेश के जल-सम्बन्धी पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा । आज विपुल जल वाले क्षेत्र भी जलाभाव से ग्रस्त हैं तथा वहां के निवासियों के स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रभाव पड़ रहा है । जल के प्रयोग में सावधानी तथा मितव्ययता सम्पूर्ण जीव सृष्टि को कायम रखने के लिए आज और भी अधिक आवश्यक हो गई है।
हमारी सृष्टि में ऊर्जा के अनन्त स्रोत हैं । प्रकृति अनेक रूपों में ऊर्जा का उत्सर्जन करती रहती है। हमारा जीवन ऊर्जा पर आश्रित है, परन्तु ऊजा के स्रोतों का उपयोग करने में भी उसी प्रकार सावधानी बरतना आवश्यक है। ऊर्जा का उपयोग आवश्यक हिंसा के रूप में होना चाहिए और सृष्टि को उसकी पुनः स्थापना करने में मदद करनी चाहिए। ऊर्जा के प्राकृतिक साधनों का अपव्यय भी मानव-सृष्टि को विनाश की ओर ले जा सकता है।
कभी कहा जाता था कि अन्न, जल तथा वायु तो प्रकृति की निःशुल्क देन है, परन्तु धीरे-धीरे हमारी मानव-सृष्टि में से तीनों प्राकृतिक साधन मनुष्य की निजी सम्पत्ति बन गये। आज तो किसी के द्वारा न बांधा जा सकने वाला शून्य और उसमें व्याप्त वायु भी मनुष्य की तिजोरियों में बन्द हो गये हैं। वायुकाय के जीवों की अविचारी हिंसा ने वायु-प्रदूषण को जन्म दिया है। हमने वायु को परिशुद्ध बनाने के अपने प्रयासों में वायु के प्राणि-जीवन की साइकिल में विक्षेप डाल दिया। औद्योगिक महाहिंसा का प्रसार वायुकाय के जीवों तक भी हुआ । वायुमण्डल का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया है, परन्तु यदि हम अब भी चाहें तो इस अविचारी हिंसा के प्रवाह को रोककर संतुलन पुनः कायम कर सकते हैं तथा मानव सृष्टि को तथा अन्य सभी जीवों को सुचारु जीवन जीने का अवसर दे सकते हैं।
वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा की बात पहले लिखी जा चुकी है। वनस्पति के जीवों की भी अनेक कोटियां हैं । कुछ वनस्पतियों का प्रयोग अनन्त जीवों का घात कर सकता है और कुछ का प्रयोग वातावरण को संतुलन बनाए रखने में सहायक हो सकता है। यह ब्यक्ति की प्रकृति, मानसिक उत्थान तथा आत्मिक संवेदना पर निर्भर करेगा कि कौन व्यक्ति कितनी मात्रा में, किस-किस प्रकार की, और किन-किन रूपों में वनस्पति का सेवन तथा प्रयोग करता है। कुछ लोग जमीकंद का त्याग करते हैं तो अन्य लोग बहुबीजी वनस्पति
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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