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मुनि श्री देशभूषण जी को अपनी अखण्ड साधना एवं ज्ञानाराधना के क्षणों में यह दिव्य अनुभूति हुई कि जैन धर्म में प्रत्येक प्राणी की रक्षा तथा उद्धार का उपदेश दिया गया है । अतः जैन धर्म कुछ एक मनुष्यों या प्राणियों का ही धर्म नहीं है, अपितु वह विश्व धर्म है । प्रत्येक व्यक्ति, यहां तक कि पशु पक्षी भी अपनी शक्ति के अनुसार उसका आचरण कर सकते हैं।
___ मुनि श्री देशभूषण जी प्रथम विश्वयुद्ध के उन्माद से परिचित थे। इस महायुद्ध के कारण हुई अपार धन-जन की क्षति का स्मरण कर वे सिहर उठते थे। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का अवलोकन कर आपने विश्वयुद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानव जाति को तीर्थंकर वाणी-विश्व मैत्री एवं अहिंसा का मंगल सन्देश देने के लिए राष्ट्रव्यापी मंगलयात्राएं करने का संकल्प किया। अपनी धर्मयात्राओं में उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन इत्यादि के महामन्त्र से भारतीय स्वातन्त्र्य का अलख प्रज्वलित कर दिया है। मुनि श्री देशभूषण जी ने भी एक धर्मगुरु के रूप में आत्मा की अनन्त शक्ति एवं उसकी अजरता, अमरता, अवध्यता इत्यादि का भाष्य करके देश की जनता को निर्भीकता का पाठ पढ़ाया। आपने स्वयं अंग्रेजी शासकों, राजे-रजवाड़ों की अनेक प्रतिबन्धात्मक आज्ञाओं का उल्लंघन कर लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसके लिए आप को कष्ट एवं उपसर्ग भी सहने पड़े।
विश्वबन्धुत्व के प्रतीक राष्ट्रीय सत श्री देशभूषण जी के प्रेरक व्यक्तित्व एवं उनके ऊर्ध्वमुखी सात्त्विक संकल्पों के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति अर्पित करने की भावना से भारतवर्ष के जैन समाज ने उन्हें समय-समय पर 'आचार्य', 'आचार्यरत्न', 'सम्यक शिरोमणि' इत्यादि विशिष्ट उपाधियों से अलंकृत कर उनसे जैन एवं जैनेतर समाज के मार्गदर्शन की अपेक्षा की है। एक निष्काम तपस्वी होते हुए भी आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने समाज की सम्मिलित इच्छा का सम्मान करते हुए लोकोपकार की भावना से उपयुक्त दायित्वों को स्वीकार कर श्रावक समाज को अनुग्रहीत किया है।
आचार्य के रूप में
जैन धर्म की संघ व्यवस्था के अनुसार गुरु के तीन भेद हैं-आचार्य, उपाध्याय और साधु । आत्मशुद्धि के साधन की दृष्टि से देखा जाए तो इनमें साधु श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि ये समस्त संकल्प-विकल्प से मुक्त होकर आत्मसाधना करते हैं, परन्तु लोककल्याण की दृष्टि से आचार्य पद सर्वोत्तम है, क्योंकि मुनि संघ की सुव्यवस्था करके वह मुनियों का ही नहीं, अपितु संसार का महान् उपकार करते हैं ।
आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने जैनधर्म व्यवस्था के अन्तर्गत आचार्य के आधीन आने वाले सभी महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को भलीभांति समझा है और उसकी मर्यादाओं को गौरवान्वित भी किया है। इस सम्बन्ध में आचार्यश्री की धारणा है, "आचार्य महाराज को मुनिसंघ की व्यवस्था के लिए अपना बहुत-सा अमूल्य समय देना पड़ता है जिसे वे आत्मज्ञान, स्वाध्याय आदि स्वार्थ (आत्मशुद्धि) साधन में लगा सकते हैं। इसके सिवाय नायक होने के कारण उनको अपने सघ के साधुओं की व्यवस्था के लिए थोड़ा चिन्तातुर भी होना पड़ता है, जिससे कि रागद्वेष का अंश भी उनको लगा करता है। इस कारण आचार्य पद पर रहते हुए उनको मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। वे जब तक अपने स्थान के योग्य किसी अन्य अनुभवी तपस्वी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके स्वयं साधु के रूप में आकर निर्द्वन्द्व तपस्या नहीं करते तब तक उनको मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार आचार्य एक पद है, जिसे किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा सर्वसंघ की अनुमति से परोपकार बुद्धि से ग्रहण किया जाता है और किसी समय आत्मकल्याण की उत्कट भावना से परित्याग भी किया जाता है।" (उपदेशसार संग्रह, भाग-२, पृष्ठ ३६१-३६२)
मानव जीवन चार मूल्यों से अनुप्रेरित है-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। इहलौकिक तथा पारलौकिक जीवन-दर्शन की अपेक्षा से भी मानव-मूल्यों को दिशा देने का कार्य प्राचीन काल से चला आ रहा है। एक समर्थ एवं युगचिन्तक साधक के रूप में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने जहां आत्मसाधना की अपेक्षा से दिगम्बरी परिवेश को धारण किया वहां लोककल्याण के लिए उन्होंने जनचेतना को सामायिक दृष्टि से प्रबुद्ध किया। धर्म, अर्थ और काम के मानवोचित मूल्यों को रेखांकित करते हुए आचार्यश्री के समाज दर्शन में मानवीय सन्तुलन एवं प्राकृतिक न्याय के आदर्श निबद्ध हैं । अनैतिक व्यापार वृत्ति, बेईमानी एवं शोषण की प्रवृत्ति का उन्होंने घोर विरोध किया है। वस्तुतः व्यक्तिगत स्वार्थ वृत्ति और बेईमानी से उपाजित धन समाज में भेदभाव, ऊँच-नीच और विषमता
कालजयी व्यक्तित्व
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