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________________ बीसवीं शताब्दी के युगपुरुष महात्मा गांधी ने अपने विदेश प्रवास से पूर्व एक जैन सन्त की प्रेरणा से तीन नियम व्रत रूप में अंगीकार किए थे। लोक कल्याण के वह मंगल नियम थे-मद्य, मांस और परस्त्री के संसर्ग से बचकर रहना। इन्हीं नियमों के पालन हेतु उन्होंने अनेक प्रकार के प्रयोग किए और पाश्चात्य शाकाहारियों के तर्कों से प्रभावित होकर उन्होंने दूध का भी त्याग कर दिया । दध का त्याग करते समय उनकी दृष्टि में यह तथ्य भी निहित था कि भारत में जिस हिंसक ढंग से पशु-पालन एवं दूध उत्पादन किया जाता है वह एक सम्वेदनशील सुहृदय मनुष्य के लिए सर्वथा असह्य था । खेड़ा-सत्याग्रह में दुर्वलता से अत्यधिक प्रभावित हो जाने पर भी चिकित्सकों, परिचितजनों के असंख्य अनुरोधों और राष्ट्र सेवा के संकल्प को साकार रूप देने की भावना से ही उन्होंने बकरी का दध लेना स्वीकार कर लिया था। इस संदर्भ में यह भी स्मरणीय है कि दूध छोड़ने का नियम लेते समय उनकी दृष्टि में बकरी का दूध त्याज्य श्रेणी में नहीं था। गौवंश की निर्मम हत्या के विरुद्ध उन्होंने शक्तिशाली स्वर उठाये । गाय में मूर्तिमंत करुणामयी कविता के दर्शन करते हुए उन्होंने उसे सारी मूक सृष्टि के प्रतिनिधि के रूप में ही मान्यता दे दी थी। उनकी सम्वेदना में सजीव प्राणियों के अतिरिक्त धरती की कोख से उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ भी रही हैं । सेवाग्राम आश्रम में संतरों के बगीचे में परम्परानुसार फल आने के अवसर पर मिठास इत्यादि के लिए पानी बन्द कर देने की कृषि पद्धति थी। गांधी जी को इससे मर्मान्तक पीड़ा हुई और उन्होंने आश्रमवासियों से कहा यदि मुझे कोई पानी बगर रखे और प्यास से मेरी मृत्यु हो तो तुम्हें कैसा लगेगा । 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' यह सदा याद रखो। भारतवर्ष का जैन समाज उन सभी के प्रति हृदय से कृतज्ञ है । राजधानी में मुगलों की सत्ता के प्रमुख केन्द्र लालकिले की पर्दे वाली दीवार के ठीक सामने 'परिन्दों का अस्पताल' जनधर्म की सहस्राब्दियों की परम्परा को स्थापित किए हुए है। इस धर्मार्थ चिकित्सालय की परिकल्पना १९२४ ई० में कुछ धर्मानुरागी श्रावकों ने की थी। वर्तमान में दिगम्बरत्व को सार्थक रूप एवं शक्ति प्रदान करने में अग्रणी परमपूज्य आचार्यशिरोमणि चारित्रचक्रवर्ती स्व० श्री श्री शान्तिसागर जी महाराज की धर्मदेशना से प्रभावित होकर इस चिकित्सालय का शुभारम्भ श्रमण संस्कृति के प्रभावशाली केन्द्र श्री लाल मन्दिर जी (चांदनी चौक) में हो गया । अस्पताल की उपयोगिता को अनुभव करते हुए प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के आराध्यपुरुष धर्मध्वजा करुणा एवं मैत्री की जीवन्त मूर्ति परमपूज्य आचार्य रत्न देशभूषण जी महाराज के पावन सान्निध्य में भारत सरकार के केन्द्रीय गृहमन्त्री लौहपुरुष श्री गोविन्दवल्लभ पन्त ने २४ नवम्बर, १९५७ को अस्पताल के नए भवन का उद्घाटन किया था। राजधानी के जैन समाज के युवा कार्यकर्ता श्री विनयकुमार जैन की लगन से अस्पताल में तीसरी और चौथी मंजिल को परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी के सान्निध्य में नया रूप प्रदान किया गया है। पिछले वर्ष इस अस्पताल का कुछ विकास हुआ है जिसके कारण देश-विदेशों में इसकी लोकप्रियता बढ़ी है और धर्म के मिशन के प्रति विश्वव्यापी सदभावनाएं प्राप्त हो रही हैं। वास्तव में पशु-पक्षी चिकित्सालय किसी भी धर्म के व्यावहारिक मन्दिर हैं । इस प्रकार के मन्दिर धर्म के स्वरूप को वास्तविक वाणी देते हैं। जनविद्याविशेषज्ञ डा० मोहनचंद ने २६ दिसम्बर १९८२ को अस्पताल की सुझाव पुस्तिका में अपनी सम्मति देते हुए लिखा है:-"संसार में अपनी भूख को शान्त करने के लिए जो पक्षियों को अपना आहार बनाते हैं, ऐसे लोग, काश ! इस अस्पताल को देख लें तो शायद उन्हें उपदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।" जैनधर्म के आद्य तीर्थकर श्री ऋषभदेव से लेकर आजतक करुणा की जो अजस्र धारा मानव-मन को अपूर्व शान्ति एवं सख का सन्देश दे रही है उस सात्त्विक भाव को विश्वव्यापी बनाने के लिए जैन समाज को संकल्प के साथ रचनात्मक रूप देना चाहिए। विश्व की संहारक शक्तियों में सदाशयता का भाव भरने के लिए करुणा के मानवीय एवं हृदयस्पर्शी चित्रों का प्रस्तुतीकरण होना आवश्यक है। आज का विश्व भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् बुद्ध एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की वाणी को साकार रूप में देखना चाहता है। अत: सहस्राब्दियों से करुणा एवं अहिंसा के प्रतिनिधि जैन समाज को कुछ इस प्रकार के वैचारिक कार्यक्रम बनाने चाहिए जिससे आज की प्रज्ञावान पीढ़ी को सही दिशा मिल सके। क्या जैन समाज आज की परिस्थितियों में भगवान् महावीर के ओजस्वी व्यक्तित्व से प्रेरणा ग्रहण कर, हिमा के विरुद्ध अनेकान्तवाद का अमोघ शस्त्र लेकर वैचारिक आन्दोलन करने की स्थिति में है ? वैसे आज इस आन्दोलन की विशेष आवश्यकता है। देखें, करुणा के दर्शन को साकार रूप देने के लिए इस बार कौन आता है ? १८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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