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________________ जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति कर्तव्यवश किया करते हैं। कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश पुण्यमय दया रूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अवारूप अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा व आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । २. कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य रूप से संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पूर्व संस्कार के बल पर कर्तव्यवश पुण्यमय दया रूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कार के बल पर संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आरम्भ पापमय अदवारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश पुण्यमव दयारूप शुभप्रवृत्ति किया करते हैं, और कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कारवश संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा व आरम्भीपाप रूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से एकदेश अथवा सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्तव्य पुण्यमय दवा शुभप्रवृत्ति किया करते हैं। ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि भव्य मिध्यादृष्टि और सासादन सम्पम्पूष्टि जीवों के समान ही प्रवृत्ति किया करते हैं, परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूप में नहीं करते हैं । ४. चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में विद्यमान सभी जीव तृतीय गुणस्थानवर्ती जीवों के समान संकल्पी पापमय • अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा रहित होते हैं। इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव या तो आसक्तिवश आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से एकदेश या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्तव्य पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। ५. पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियम से आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से एकदेशनिर्विकारू शुभप्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीव को पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदा रूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वदेशनिवृत्तिपूर्वक पुष्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। ६. षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव नियम से आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वदेश निवृत्ति-पूर्वक कर्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीव को पष्ठ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता। ७. पष्ठ गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में जीव आरम्भीपापमय अदया रूप अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्य रूप में नहीं करते हुए अन्तरंग रूप में ही तब तक करता रहता है, जब तक नवम गुणस्थान में उसको अप्रत्या ख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायों की क्रोध-प्रकृतियों के सर्वथा उपशम या क्षय करने की क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीव के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का उदय प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान के अन्त समय तक रहता है और पंचम गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है। इसी तरह जीव के प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का उदय प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम गुणस्थान के अन्त समय तक रहा करता है, और षष्ठ गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोध कर्म का उदय ही रहा करता है। परन्तु संज्वलन क्रोध कर्म का उदय व अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मों का क्षयोपशम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थान में इनका सर्वथा उपशम या क्षय नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का बन्ध चतुर्थ गुणस्थान तक ही होता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का बन्ध पंचम गुणस्थान तक ही होता है और संज्वलन क्रोध कर्म का बन्ध नवम गुणस्थान के एक निश्चित भाग तक ही होता है। इन सबके बन्ध का कारण जीव की भाववती शक्ति के हृदय और मस्तिष्क के सहारे पर होने वाले यथायोग्य परिणमनों से प्रभावित जीव की क्रियावती शक्ति का मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जीव चतुर्थ गुणस्थान में जब तक आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति का यथायोग्य रूप में एकदेश त्याग नहीं करता, तब तक तो उसके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का बन्ध होता ही रहता है । परन्तु वह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति का एकदेश त्याग कर देता है और उस त्याग के आधार पर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्म के क्षयोपशम की क्षमता प्राप्त हो जाती है तो इसके पूर्व उस जीव में उस क्रोध कर्म के बन्ध का अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थान के समान प्रथम और तृतीय गुणस्थान में भी लागू होती है। इसी तरह जीव पंचम गुणस्थान में जब तक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति का सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म का बन्ध होता ही है, परन्तु यह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति का सर्वदेश त्याग कर देता है और इस त्याग के आधार पर उसमें कदाचित् उस प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्म के क्षयोपशम की क्षमता प्राप्त हो जाती है तो इसके पूर्व उस जीव में उस क्रोध कर्म के बन्ध का अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंचम गुणस्थान के समान प्रथम, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानों में भी लागू होती है। पंचम गुणस्थान के आगे के गुणस्थानों में तब तक जीव संचलन क्रोम कर्म का बन्ध करता रहता है जब तक वह नवम गुणस्थान में बन्ध के अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति करता रहता आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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