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जगज्जननी सीता ने राजा भरत को आशीर्वाद देते हुए कहा था
___ "मैं अम्बा-सम आशीष तुम्हें दूं, आओ,
निज अग्रज से भी शुभ्र सुयश तुम पाओ।" ऐसी पावन भूमि में जैनधर्म के आद्य तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभनाथ के विशाल मन्दिर की योजना का विचार आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के मन में भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के साथ-साथ जागृत हो गया।
सन् १९४७ में अपने बनारस चातुर्मास के अवसर पर आपने यह अनुभव किया कि भारत के सांस्कृतिक विकास के लिए सभी धर्मों के अनुयायियों को एक दूसरे के प्रति उदार दृष्टि रखनी चाहिए । वर्षों पूर्व बनारस में धार्मिक कट्टरता का वातावरण था। हिन्दी के महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को जैन मन्दिर में जाने पर हिन्दू समाज के रूढ़िवादियों का विरोध सहना पड़ा था। राष्ट्रीय कवि ने इस धर्मान्धता और संकीर्ण दृष्टि का विरोध करते हुए एक पद में अपनी मानसिक वेदना को रूपायित करते हुए कहा था कि हमारे एवं जैनियों के ईश्वर में कोई भेद नहीं है :
"पियारे दूजो को अरहंत । पूजा जोग मानि के जग में जाको पूजै सत । अपनी अपनी रुचि सब गावत पावत कोउ नहीं अंत ।
'हरीचंद' परिनाम तुही है तासो नाम अनंत ॥" शताब्दियों की परतन्त्रता से मुक्त होकर भारतीय जनमानस भी अब साम्प्रदायिक विद्वेषों को विस्मत कर राष्ट्रीय धारा में समिलित होने का इच्छक था। आचार्यश्री की दृष्टि में भगवान् ऋषभदेव का विराट् दिव्य रूप श्रमण सस्कृति के साथ-साथ वैदिक संस्कृति में भी आदर एवं श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। आचार्यश्री ने इन दोनों संस्कृतियों के मिलनबिन्दु को अपनी समाराधना का केन्द्र बनाया। सन १९४८ से १९५१ तक आचार्यश्री आद्यतीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के यशस्वी पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के कर्णप्रिय महाकाव्य 'भरतेश वैभव' का भारतीय भाषाओं (गुजराती, मराठी एव हिन्दी) में अनुवाद करते रहे । प्रस्तुत ग्रन्थों की भमिका में भगवान ऋषभदेव के धवल गणों का वर्णन आचार्यश्री ने श्रीमद्भागवत के आधार पर किया है । सन् १९५१ के लखनऊ चातुर्मास में आचार्यरत्न श्री देशभषण जी ने अयोध्या में पचकल्याणक समारोह की प्रेरणा दी थी। उसी वर्ष उनके सदप्रयासों से समाज के बालकों के सर्वाङ्गीण विकास की भावना से अयोध्या में जैन गुरुकुल की स्थापना भी हुई । सन् १९५२ में आचार्यश्री का बाराबंकी में चातुर्मास हआ। चातुर्मास के समापन पर आप लम्बी पदयात्रा करके अयोध्याजी गए और वहां वेदी प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न कराया ।
आचार्यश्री अयोध्या क्षेत्र के योजनाबद्ध विकास में गहरी रुचि रखते हैं। इसी कारण उन्होंने अपने मन में संजोए हुए विचारों को अनकल समय देखकर जयपुर चातुर्मास में प्रकट कर दिया। श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटश की विश्वविख्यात कलात्मक प्रतिमा उनके लिए सदा आकर्षण एवं प्रेरणा का केन्द्र रही है। आवार्यश्री की मान्यता यह रही है कि उत्तर भारत में भी भगवान ऋषभदेव. भगवान शान्तिनाथ, भगवान् पार्श्वनाथ, भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् बाहुबली इत्यादि की इसी प्रकार की भव्य एवं विशाल मतियां स्थापित कराई जाएँ। इसी भावना से उन्होंने तीर्थक्षेत्र अयोध्या के लिए भगवान् ऋषभ देव की मकराना के श्वेत सगमरमर की ३३ फट ऊँची प्रतिमा के निर्माण का संकल्प ले लिया। इस सात्त्विक संकल्प को मूर्त रूप देने के लिए जैन एवं जनेतर समाज के लोक उदार श्रेष्ठ तत्पर हो गए। कुशल मूर्तिकारों ने मूर्ति का तक्षण कार्य प्रारम्भ किया और अनायास ही आचार्यरत्न जैसे समर्थ मनि के निर्मल मन की गंगा के अनुरूप मूर्ति का सौन्दर्य निखर कर प्रकट हो गया। इस भव्य, मनोज्ञ एवं आकर्षक मूर्ति को देखकर हिन्दु समाज के महान नेता उद्योगपति सेठ जुगलकिशोर जी बिड़ला विशेष रूप से प्रभावित हुए। उन्होंने आचार्यश्री से अनुरोध किया कि वे इस माति को दिल्ली में स्थापित करने की कृपा करें। उन्होंने आचार्यश्री से यह प्रस्ताव भी किया कि यदि वे चाहें तो इस मूर्ति को राजधानी स्थित बिडला मन्दिर में भी स्थापित किया जा सकता है। आचार्यश्री ने धर्मप्राण श्री जुगलकिशोर बिड़ला की भावनाओं का आदर करते हुए कहा कि यह मूति तो भगवान रामचन्द्र जी की जन्मभूमि अयोध्या क्षेत्र के लिए ही बनवाई गई है। उन्होंने सेठ जी की इच्छा को देखते हुए कहा कि यदि दिल्ली में कोई उपयुक्त स्थान मिल जाए तो वह ऐसी ही मूर्ति का पुनः निर्माण करा देंगे ।
आचार्य श्री देशभषण जी तीर्थक्षेत्रों एवं अन्य विशिष्ट स्थानों पर बड़े-बड़े मन्दिरों के निर्माण के प्रेरक रहे हैं। इस संबंध में उनकी धारणा है कि मन्दिरों का विस्तृत क्षेत्र होने से भविष्य में नई योजनाओं को क्रियान्वित करने में आनेवाली पीढियों को साधनों
कालजयी व्यक्तित्व
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