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________________ बने हुए छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों सहित, पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था। उस नगरी का नाम अयोध्या था । वह केवल नाममात्र से अयोध्या नहीं थी किन्तु गुणों से भी अयोध्या थी। कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिए उसका वह नाम सार्थक था [अरिभिः योद्धं न शक्या-अयोध्या] ॥७६॥ उस नगरी का दूसरा नाम साकेत भी था क्योंकि वह अपने अच्छे अच्छे मकानों से बड़ी ही प्रशंसनीय थी। उन मकानों पर पताकाएं फहरा रही थीं जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वर्गलोक के मकानों को बुलाने के लिए अपनी पताका रूपी भुजाओं के द्वारा संकेत ही कर रहे हों। [आकेतैः गृहैः सह वर्तमाना=साकेत, 'स+ आकेता'-घरों से सहित] ॥७७॥ वह नगरी सुकोशल देश में थी इसलिए देश के नाम से 'सुकोशला' इस प्रसिद्धि को भी प्राप्त हुई थी। तथा वह नगरी अनेक विनीत-शिक्षित-पढ़े-लिखे विनयवान् या सभ्य मनुष्यों से व्याप्त थी इसलिए वह 'विनीता' भी मानी गयी थी.. उसका एक नाम 'विनीता' भी था ॥७८॥ वह सुकोशला नाम की राजधानी अत्यन्त प्रसिद्ध थी और आगे होने वाले बड़े भारी देश की नाभि (मध्य भाग की) शोभा धारण करती हुई सुशोभित होती थी॥७६।। राजभवन, वप्र, कोट और खाई सहित वह नगर ऐसा जान पड़ता था मानो आगे कर्मभूमि के समय में होने वाले नगरों की रचना प्रारम्भ करने के लिए एक प्रतिबिम्ब-नकशा ही बनाया गया हो ॥५०॥ अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया ॥१॥ जिन्हें अनेक सम्प्रदायों की परम्परा प्राप्त हुई थी ऐसे महाराज नाभिराज और मरुदेवी ने अत्यन्त आनन्दित होकर पुण्याहवाचन के समय ही उस अतिशय ऋद्धि युक्त अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारम्भ किया था ।।२॥ "इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे" यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी ॥३॥ जैनधर्म के पौराणिक साहित्य में अयोध्या नगरी में अनेक जैन मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। काष्ठासंघ - नदीतटगच्छ के भट्टारक ज्ञानसागर (१६वीं-१७वीं सदी) ने 'सर्वतीर्थवंदना' के ८१वें छप्पय में इसका वर्णन इस प्रकार किया है: कोशल देश कृपाल नयर अयोध्या नामह । नाभिराय वृषभेश भरत राय अधिकारह ।। अन्य जिनेश अनेक सगर चक्राधिप मंडित । दशरथ सुत रघुबीर लक्ष्मण रिपुकुल खंडित ।। जिनवर भवन प्रचंड तिहां पुण्यक्षेत्र जागे जाणिये। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति श्रीजिनवृषभ बखाणिये ।। धीरे-धीरे भारतीय इतिहास में घटित अनेक धर्मान्ध घटनाओं के घटाटोप में अयोध्या स्थित जैन मन्दिरों का अस्तित्व लुप्त होता चला गया। भगवान् ऋषभदेव के पावन चरणचिह्नों की पूजा-अर्चना करने वाले श्रावक समुदाय में अयोध्या के जैन वैभव के प्रति विधर्मी शासन काल में भी रुचि बनी रही। श्री एच० आर० नेविल ने संयुक्त प्रान्त आगरा एव अवध के स्थानीय गजेटियरइलाहाबाद जिल्द संख्या ४३ (१९०५)-फैजाबाद के पृष्ठ ५७-५८ में अयोध्या के जैन वैभव, उसकी पृष्ठभूमि इत्यादि का उल्लेख करते हुए सम्वत् १७८१ में पांच तीर्थंकरों-भगवान् ऋषभनाथ, श्री अजित नाथ, श्री अभिनन्दन नाथ, श्री सुमति नाथ एवं श्री अनन्त नाथ की प्रतिष्ठा में पाँच दिगम्बर जैन मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख किया है। एक लोककथा के अनुसार दिल्ली निवासी श्री केशरी सिंह अग्रवाल की प्रार्थना पर फैजाबाद के शासक फैजुद्दीन ने एक अतिशयपूर्ण घटना को अपनी आँखों से प्रत्यक्ष रूप में देखकर भगवान् ऋषभदेव की जन्मभूमि, जिसे किसी धर्मान्ध मुस्लिम ने मस्जिद का रूप दे दिया था, पर पुनः जैन मन्दिर बनवा दिया। जैन पुराणकारों की भांति हिन्दू शास्त्रकारों ने भी अयोध्या नगरी की पवित्रता एवं वैभव का मुक्तकठ से गुणगान किया है। विश्वसाहित्य के आद्यकवि, रामचरित के गायक महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक भारतवर्ष की विभिन्न भाषाओं में राम साडिया प्रणयन करने वाले सभी सजनशील साहित्यकारों ने अपनी पावन वाणी से अयोध्या नगरी को विश्ववन्दनीय बना दिया है। राष्टकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने तो अपने भक्तिपरक रामकाव्य का नामकरण 'साकेत' ही कर दिया । 'साकेत' की प्रशंसा उन्होंने इन शब्दों में की है-"देख लो साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही।" साकेत की यह परमपावन पुण्य भूमि सत्ता का केन्द्र होकर भी अपनी वैराग्यपरक अनुभूतियों के लिए प्रसिद्ध रही है । इस महान् भमि पर 'भरत' नामधारी दो ऐसी विभूतियां हुई हैं जिनके नाम तथा गण एक समान हैं। दोनों को राज्याभिषिक्त किया गया, किन्तु सत्ता का भोग एवं वैभव उनकी वैराग्यजन्य अनुभूतियों के सन्मुख नतमस्तक हो गया । भारतीय संस्कृति की श्रमण एव वैदिक चिन्तनधारा में सम्राट् भरत का गुण-कथन समान रूप से उपलब्ध है। एक ओर जहां भारतवर्ष को एक राष्ट्र के सूत्र में पिरोने वाले सम्राट भरत को श्रमण संस्कृति में योगी के रूप में स्मरण किया जाता है, वहीं रामकाव्य के बहुश्रुत पात्र राजा भरत ने अपने भक्तिपरक त्यागमय आचरण से अयोध्यावासियों को मुग्ध कर दिया था। आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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