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________________ . दिगम्बर.) जिनकल्पी साधु विशुद्ध है (द्र०प्रवचनसारोद्धार, भा०३, पृ०, १३)तथा 'से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स णत्थि ममाइयं-जिसके परिग्रह नहीं है, उसी मुनि ने पथ देखा है (आयारो, I, अ० २, उ०६, सूत्र १५७)' कला के क्षेत्र में, प्रतिमा-विधान के प्राचीन जैनेतर शास्त्रकारों ने भी जिन-प्रतिमा का स्वरूप दिगम्बर ही प्रतिपादित किया है, यथा आजानुलम्बिबाहुः श्रीवत्सांकप्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरणों रूपवांश्च कार्योऽहंतां देवः ॥ निराभरणसर्वांगनिर्वस्त्रांग . मनोहरम् । सत्यवक्षःस्थले हेमवर्णश्रीवत्सलाञ्छनम् ॥ वर्तमान में उपलब्ध जिनप्रतिमाएं मौर्यकाल (ईसापूर्व ४.थी-३ री शताब्दी) जितनी प्राचीन भी हैं और आनेवाली शताब्दियों में उनकी संख्या उत्तरोत्तर वृद्धिंगत रही, किन्तु ६ वीं शती ई०के पूर्व निर्मित प्रायः सभी तीर्थंकर या जिन-प्रतिमाएं, चाहे वे पद्मासनस्थ हों या कायोत्सर्ग मुद्रा में, खड्गासनस्थ, निर्वस्त्र-दिगम्बर ही हैं । यही कारण है कि वराहमिहिर आदि प्राचीन शास्त्रकारों ने अर्हन्त देव (जिनदेव या तीर्थकर भगवानों) की प्रतिमाओं का उपर्युक्त स्वरूप प्रतिपादन किया। ये दिगम्बर प्रतिमाएं ६-१०वीं शती ई० तक तो उभय सम्प्रदायों के अनुयायियों द्वारा समानरूप से पूजनीय रहीं, अनेक आज भी हैं। कई दिगम्बर प्रतिमाएं तो ऐसी भी हैं जो श्वेताम्बराचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित हैं। किन्तु प्रायः उसी काल (६ वीं शती ई०) से साम्प्रदायिक भेद प्रकट करने की दृष्टि से श्वेताम्बर साधु जिन-मूर्तियों में भी लंगोट का चिह्न बनवाने लगे--मुकुट, हार, कुंडल, चोली, आंगी,कृत्रिम नेत्र आदि का प्रचलन तो इधर लगभग दो-अढ़ाई सौ वर्ष के भीतर ही हुआ है। जैन परम्परा में ही नहीं, अन्य धार्मिक परंपराओं में भी उत्कृष्टतम साधकों के लिए दिगम्बरत्व की ही प्रतिष्ठा रही प्राप्त होती है । प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्धु-घाटी सभ्यता के मोहजोदड़ो (अब पाकिस्तान के लरकाना जिले में) से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग दिगम्बर योगियों के अंकन से युक्त मृण्मुद्राएं मिली हैं, और हड़प्पा (माण्टगुमरी, पाकिस्तान) के अवशेषों में तो एक दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ भी मिला है। स्वयं ऋग्वेद में 'वातरशनाः' (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख मिलता है, कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को श्रमणधर्मा एवं ऊर्ध्वरेतस् (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है। श्रीमद्भागवत में भी वातरशना मुनियों के उल्लेख हैं तथा उसमें व अन्य अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को विष्णु का एक प्रारंभिक अवतार सूचित करते हुए उन्हें दिगम्बर ही चित्रित किया गया है। ऐसे उल्लेखों पर से स्व० डॉ० मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि 'वातरशना श्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि-परम्परा थी, जिसका प्रभाव वैदिक धारा पर स्पष्ट है, और जिसका अभिप्राय जैन मुनियों से ही रहा प्रतीत होता है। कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों व बृहत्संहितादि लौकिकग्रन्थों और क्लासिकल संस्कृत-साहित्य में भी बहुधा दिगम्बर मुनियों के उल्लेख एवं दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त है। राजर्षि भर्तृहरि तो लिखते हैं एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्म-निर्मलनक्षमः ॥ (वैराग्य शतक, 59) वस्तुत:, ब्राह्मण-परम्परा में जिन छह प्रकार के संन्यासियों का विधान है, उनमें से तुरीयातीत श्रेणी के संन्यासी सर्वथा दिगम्बर ही होते थे। अवधूत और परमहंस भी प्रायः दिगम्बर ही रहते थे। जड़भरत, शुकदेव मुनि आदि के कई उदाहरण भी मिलते हैं । मध्यकालीन साध अखाड़ों १. तथा देखिए-आचारांगसूत्र, अध्ययन ६, उद्देशक ३, सूत्र ५६-६५; अ०८, उ०४, सू० ५३; उ०६, सू० ६३-६४; उ०७, सू० १११-१५; व याकोबी-जैनसूत्राज, १, १०५६ उत्तराध्ययनसूत्र (याकोबी-जन सूत्राज, २, पृ० १०६); ठाणांगसूत्र, पृ०८१३; सूयगडांग, ७२ व पृ० २५८, आदि जहाँ जैन साधु का श्रेष्ठतम रूप अचेलक अर्थात् दिगम्बर ही प्रतिपादित किया है। २. ब०स०, अ. ५८, वराहमिहिर ३. मानसार, ८१-८२ ४. देखिए-भागवतपुराण, स्कंध ५, व स्कंध २, अध्याय ३,६,७; पद्मपुराण, भूमिकांड, अ०६५; स्कंदपुराण, प्रभास खंड, अ०६; माहेश्वरखंड, अ० ३७; विष्णुपुराण , द्वितीयांश, अ० १; शिवपुराण, तृ०श०; अग्निपुराण, अ० १०; वायुपुराण, अ०३३; लिंगपुराण, अ०४७; ब्रह्माण्डपुराण, अध्याय ४; मार्कण्डेयपुराण, अ०५०, कूर्मपुराण, अ० ४१; इत्यादि । ५. यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः शुद्धमानसः...निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठोऽशुभकर्म निर्मूलनपरः संन्यासेन देहत्याग करोति स परमहंसो नामेति । अथर्ववेदीय जाबालोपनिषद्, स्त्र ६/६, १०२६०-६१ देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः ...संन्यस्व जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी । संन्यासोपनिषद् २/१३: आरममायारतं देवमवधूतं दिगम्बरम् । शाण्डिल्योपनिषद् ३/१ जैन धर्म एवं आचार : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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