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दिगम्बरत्व अनिवार्यतः आवश्यक है।' दिगम्बर, दिग्वास, आशाम्बर, अचेलक, निश्चेल, क्षपणक, यथाजातरूपधर, अनगार, नग्न और निर्ग्रन्थ-ये सब शब्द पर्यायवाची हैं और जैन मुनियों के लिए प्रयुक्त होते आये हैं।
अतएव, भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य का उद्घोष है कि “जिन-शासन में तो वस्त्रधारी सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता, भले ही वह स्वयं तीर्थंकर ही क्यों न हो । नग्नत्व (दिगम्बरत्व) ही मोक्ष-मार्ग है, शेष सर्व (साधुवेश) उन्मार्ग हैं।"
__ण वि सिज्मइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सवे ॥ "मुनि के लिए अचेलक (दिगम्बर) रहने तथा स्वयं अपने हाथों का ही भोजन-पात्र के रूप में सद्-उपयोग करने का जो उपदेश परमोत्कृष्ट जिनेन्द्रदेव ने दिया है, वही एकमात्र मोक्ष-मार्ग है, शेष सब मार्ग अमार्ग हैं
णिच्चेल-पाणिपत्त उवइलैं परमजिणरिदेहि।
एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सब्वे ॥' "साधु के बालाग्र जितने परिग्रह का भी ग्रहण नहीं होता, और वह दिन में एक बार ही, एक ही स्थान में खड़े-खड़े, पाणि-पात्र में दिया गया योग्य आहार लेता है
बालग्गकोडिमेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं ।
भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥ वह यथाजातरूप दिगम्बर मुनि अपने शिर एवं मुख के केशों का अपने हाथ से उत्पाटन करता है, उसका वेश या रूप शुद्ध होता है, हिंसादिरहित, शृंगार-रहित, ममत्व एवं आरम्भ-रहित, तथा उपयोग एवं योग की शुद्धि-सहित होता है, वह परद्रव्य-निरपेक्ष होता है। यह साधनामार्ग अपुनर्भव (मोक्ष) का कारण होता है
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्ध। रहिवं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिगं ॥ मुच्छारंभविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं।
लिगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जोण्हं ॥ 'वह सद्योजात बालक-जैसी दिगम्बर-मुद्रा का धारक मुनि तिलतुष-मात्र परिग्रह भी ग्रहण नहीं करता, किन्तु यदि वह थोड़ा या बहुत कुछ भी परिग्रह ग्रहण करता है तो निगोद में जाता है
जहजायख्वसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदिहत्थेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।' इतना ही नहीं, उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि 'भावेण होइ णग्गो, कि णग्गेण भावरहियेण?-अर्थात् मात्र बाह्य में,
जाता है
१. वत्याजिणवक्केण य अहवा पत्तादिणा असंवरणं । णिभूसण णिगंथं अच्चेलक्क जगदि पुज्जं ।। मूलाचार, १/३२ बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णाणं इक्कठाणम्मि ॥ सूत्रपाहुड, १७ विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। र०क० श्रा०, १० त्यक्तबाह्याभ्यन्तरमन्थो निःकषायो जितेन्द्रियः । परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ।। धर्मपरीक्षा एकाकी गृहसंत्यक्तः पाणिपानो दिगम्बरः । पञ्चतन्त्रम् नग्नान् जिनानां विदुः । वराहमिहिर २. सुत्तपाहुड, २३ ३. वही, १० ४. वही, १७ ५. प्रवचनसार, ३/५-६ ६. सुत्तपाहुड, १८
जैन धर्म एवं आचार
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