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ध्यान । उसे अशुभ और शुभ ध्यान भी कह सकते हैं। आर्त ध्यान और रौद्रध्यान ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं और कर्म-बंधन के कारण हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान, ये दोनों प्रशस्त ध्यान हैं।
वैदिक परंपरा ने उन्हें क्लिष्ट और अक्लिष्ट ध्यान की संज्ञा दी है। आचार्य बुद्धघोष ने प्रशस्त ध्यान के लिए कुशल शब्द का और अप्रशस्त ध्यान के लिए अकुशल शब्द का प्रयोग किया है । कुशल ध्यान से समाधि होती है क्योंकि वह अकुशल कर्मों का दहन करता है। जो ध्याया जाए वह ध्येय है और ध्याता का ध्येय में स्थिर होना ध्यान है। निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा अपने आत्मा में अपने आत्मा द्वारा अपने आत्मा के लिए अपने आत्मा के हेतु से और अपने आत्मा का ध्यान करता है, वही ध्यान कहलाता है। यह प्रशस्त ध्यान ही मोक्ष का हेतु है।
ज्ञानार्णव में ध्यान के अशुभ, शुभ और शुद्ध-ये तीन भेद किये गये हैं और जो अन्ततः आर्त, रौद्र आदि चार ध्यानों में ही समाविष्ट हो जाते हैं।
(आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने धर्मध्यान पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, के इन चार अवान्तर भेदों का वर्णन किया है।) धर्मध्यान के मौलिक रूप आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय और संस्थान-विचय के स्थान पर पिण्डस्थ आदि ध्यान प्राप्त होते हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य-भावना के स्थान पर पार्थिवी, आग्नेयी, वारुणी और मारुति, ये चार धारणाएं मिलती हैं। सम्भव है, इस परिवर्तन का जन-जन के मन में हठयोग और तंत्र शास्त्र के प्रति जो आकर्षण था जिसके कारण जैनाचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में उन विषयों का समावेश किया हो। विज्ञों का ऐसा मानना है पिण्डस्थ आदि जो ध्यान-चतुष्टय हैं उनका मूल स्रोत तंत्रशास्त्र रहा है। 'गुरुगीता' प्रभृति ग्रन्थों में ध्यान-चतुष्टय का वर्णन प्राप्त होता है।
'नमस्कार-स्वाध्याय' में ध्यान के अट्टाईस भेद और प्रभेद भी मिलते हैं। यदि हम गहराई से अनुचिन्तन करें तो ये सभी भेदप्रभेद आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल में समाविष्ट हो जाते हैं। हम यहां पर आर्त ध्यान और रौद्रध्यान के भेद-प्रभेद पर चिन्तन न कर सिर्फ धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान पर ही चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं।
धर्म का अर्थ आत्मा को निर्मल बनाने वाला तत्त्व है । जिस पवित्र आचरण से आत्मा की शुद्धि होती है वह धर्म है। उस धर्म में आत्मा को स्थिर करना धर्म-ध्यान है । इसी धर्म-ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा आत्मा कर्मरूपी काष्ठ को जलाकर भस्म करता है और अपना शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरंजन स्वरूप प्राप्त कर लेता है। धर्म-ध्यान के भगवती, स्थानांग" और औपपातिक आदि में आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक-विचय, संस्थान-विचय ये चार प्रकार हैं। यहां विचय का अर्थ निर्णय अथवा विचार है। वीतराग भगवान की जो आज्ञा है, उनका निवृत्तिमय उपदेश है उसपर दृढ़ आस्था रखते हुए उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलना एवं निषिद्ध कार्यों का परित्याग करना, क्योंकि कहा है-आणाए तओ, आणाए संजमो, आणाए मामगं धम्मं । यह धर्म-ध्यान का प्रथम भेद आज्ञा-विचय है।
अपाय-विचय----अपाय का अर्थ दोष या दुर्गुण है। आत्मा अनन्त काल से मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के कारण इस विश्व में परिभ्रमण कर रहा है । इन दोषों से आत्मा किस प्रकार मुक्त हो सकता है, दोषों की विशुद्धि कैसे हो सकती है-इस विषय पर चिन्तन करना अपाय-विचय है।
विपाक-विचय-आत्मा जिन दोषों के कारण कर्म का बंधन करता है, मोह की मदिरा पीने के कारण कर्म बांधते समय अत्यन्त
१. विशुद्धिमग्ग २. (क) तत्त्वानुशासन, ६६; (ख) इष्टोपदेश, ४७ ३. तत्त्वानुशासन, ७४ ४. (क) वही, ३४; (ख) ज्ञानार्णव, २५/३१ ५. ज्ञानार्णव, ३/३८ ६. वही, ३७/१ ७. योगशास्त्र, ७/८ ८. नमस्कारस्वाध्याय ग्रन्थ, पृ० २२५ ९. ध्यानाग्निदग्धवर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरंजनः । हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र, ४४ । १०. भगवती, २५/७ ११. स्थानांग, ४१ १२. औपपातिक, समवसरण प्रकरण, १६ १३. संबोधसरि, ३२ १४. आचारांग, ६/२
जैन धर्म एवं आचार
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