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________________ नहीं, अन्तरंग साधना से सम्बद्ध है । वह आन्तरिक प्राण-शक्ति है, आत्मा की नैसगिक अनन्त ऊर्जा है, वह साम्प्रदायिक व जातीय -संकीर्णताओं में विभक्त नहीं है । अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर आत्मा स्वयं 'धर्म' रूप हो जाता है—ऐसा जैन शास्त्रों में प्रतिपादित है । शुद्धात्मस्वभाव की भावना, जिसके बल पर साधक शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति में समर्थ होता है, संसार-पतन से रक्षा करने वाली होने के कारण 'धर्म' नाम से अभिहित की गई है। आत्मा की शुद्ध स्वाभाविक अवस्था, पूर्ण वीतरागता, पूर्ण समता, अहिंसा, माध्यस्थ्य भाव-ये सभी समा'नार्थक हैं । अत: इन सभी को जैन परम्परा में 'धर्म' नाम से अभिहित किया गया । इसी दृष्टि से जैन धर्म या मोक्ष-मार्ग को वीतराग-धर्म, अहिंसा-धर्म, समता-धर्म आदि नामों से पुकारा जाता है । अहिंसा-धर्म का ही विस्तार कर आदि पुराण में पांच सनातन धर्म प्रतिपादित किये गए-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । चाहे धर्माराधक गृहस्थ हो या मुनि, दोनों भूमिकाओं में इन सनातन धर्मों का आंशिक (अणुव्रत) या पूर्णतः (महाव्रत) पालन करना अनिवार्य होता है । उक्त अहिंसा-धर्म का कुछ और अधिक विस्तार (आदि पुराण में) किया गया और प्राणिदया, सत्यभाषण, क्षमा-भाव, निर्लोभता, तृष्णा-अभाव, सम्यग्ज्ञान, वैराग्य-इन्हें 'धर्म' के रूप में उल्लिखित किया गया। स्थानांग सूत्र में धर्म के चार द्वार बताए गए हैं-क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (निर्लोभता) । (वैदिक बृहद्धर्मपुराण में भी धर्म के चार अवयव बताए गए हैं-सत्य, दया, शान्ति, अहिंसा।) जैन परम्परा में धर्म के दश भेद भी प्राप्त होते हैं-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य । इन्हें भी अहिंसा धर्म के ही विस्तार समझने चाहिएं। वैदिक परम्परा में भी दश सनातन धर्म घोषित किए गये हैं -सत्य, दम, तप, शौच, संतोष, क्षमा, आर्जव, ज्ञान, शम, दया, दान (गरुडपुराण-/२१३/-४)। जैन परम्परा की यह स्पष्ट उद्घोषणा है कि अहिंसा सभी व्रतों का सार है और इस पर सभी व्रत व गुण आधारित हैं। सत्य-अचौर्य आदि व्रत अहिंसा के ही गुण है। वैदिक परम्परा में भी, जैन परम्परा के अनुरूप, उक्त स्वर यत्र-तत्र सुनाई पड़ता है । ___ अहिंसा धर्म सब धर्मों का मौलिक आधार है। किसी धर्म से इसके विरोध का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । सभी धर्म-वैदिक या जैन, यही शिक्षा देते हैं कि अन्य धर्मों का तिरस्कार करना उचित नहीं । अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म की श्रेष्ठता असंदिग्ध है, क्योंकि यही दुःख-मुक्ति का यथार्थ मार्ग प्रस्तुत करता है। जैन धर्म एवं आचार __ आत्मा का त्रैकालिक शुद्ध निर्विकारी स्वभाव--पूर्ण वीतरागता है। पूर्ण वीतरागता तथा कर्म-अबद्धता ही मुक्ति की अवस्था है । इस अवस्था को प्राप्त करने हेतु जिनेन्द्र-उपदिष्ट मोझ-मार्ग 'रत्नत्रय' है। रत्नत्रय -अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र-इनका समन्वित/समुदित रूप। जैन परम्परा में उक्त रलत्रय को 'धर्म' नाम से अभिहित किया गया है । उक्त रत्नत्रय रूप धर्म को समग्र रूप से स्वयं में उतारने वाला वीतरागी साधु भी 'धर्म' रूप माना गया है। शास्त्रों में संसार को एक ऐसे समुद्र की उपमा दी गई है जिसमें कर्मरूपी, या जन्ममरणरूपी जल भरा हुआ है। इस जल में शोक-दुःख आदि लहरें उठ रही हैं । इसमें जीव एक समुद्र-पोत है जिस पर शुद्ध स्वभाव या रत्नत्रयात्मक बहुमूल्य सामग्री लदी है। इस समुद्र में इन्द्रियादि छिद्र हैं जिनके कारण कर्म-रूपी जल आता रहता है, और फलस्वरूप अधिक कर्मों के कारण उक्त जीवरूपी पोत संसार में डब जाता है। इस दुःखद स्थिति से बचने का उपाय इन्द्रियादि छिद्रों को बन्द करना, अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह, तपश्चर्या, व संयमादिधारण, या जिनोपदिष्ट धर्म व चारित्र का पालन है। चारित्र से तात्पर्य है-रागादि का परिहार जिससे साधक में कर्मों के नष्ट करने की सामर्थ्य पैदा होती है । जैसे, तैरने की कला में प्रवीण व दृढ़ शारीरिक बल वाला तैराक भी हाथ-पांव चलाने की काय-चेष्टा न करे तो समुद्र में डूब जाएगा। वैसे ही, चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन-ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति भी संसार-समुद्र में डूब जाएगा। इसीलिए, दृष्टि (सम्यक्त्व) व चर्या (चारित्र) के योग से मोक्ष की प्राप्ति का होना माना गया है । सदाचार से गुण-समूह, गुणसमूह से पुण्य, पुण्य से विजय प्राप्त होती है। इस प्रकार सदाचार का महत्त्व विविध रूपों में प्रतिपादित किया गया है । संसार-समुद्र को पार करने के उपायों में रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र) के साथ, 'तप' का भी समावेश किया गया है। सम्यक् दर्शन व सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र की स्थिति सम्भव नहीं, अतः सम्यक् चारित्र में सम्यग्दर्शन-ज्ञान दोनों स्वतः समाविष्ट / गृहीत हो जाते हैं। इस प्रकार, (सम्यक्) चारित्र समग्र रत्नत्रय का प्रतिनिधि सिद्ध हो जाता है, और अपनी सर्वश्रेष्ठता भी इंगित करता है। 'चारित्र' में 'तप' भी समाविष्ट है, अतः मोक्ष के उपायों में 'चारित्र' ही सर्वप्रमुख रूप से सिद्धि-दाता है । अपने समान स्वभाव व कार्य के कारण, चारित्र और धर्म एक कोटि में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। इसीलिए, आचार्य कुन्दकुन्द ने 'चारित्र' को 'धर्म' नाम से अभिहित किया है। जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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