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(५) (क) देवी शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिए हिंसा का आश्रय उचित मानने वाली, (ख) हिंसा को किसी भी .
स्तर पर स्वीकार न करने को आदर्श मानने वाली तथा अध्यात्मयज्ञ/ज्ञान यज्ञ आदि की प्रचारक या
पक्षधर । (६) (क) प्रवृत्तिमार्गी, (ख) निवृत्तिमार्गी, आदि-आदि ।।
चिन्तन के क्रम में परस्पर विचारों के आदान-प्रदान तथा एक दूसरे से प्रभावित होने की प्रक्रिया से अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी हए। क्रमशः भोग की अपेक्षा त्याग व संयम की श्रेष्टता बलवती होती गई। कालान्तर में यज्ञीय हिंसा का क्रमशः लोप हो गया । भारतीय संस्कृति में निवृत्ति मार्ग की श्रेष्ठता सामान्यतः स्वीकृत हुई। एक विचारधारा को अनुकृति पर दूसरी विचारधारा में सामाजिक आवश्यकतानुरूप कई वैचारिक विकास भी होते रहे। जैसे, आत्मवाद व ईश्वरवाद का समन्वित रूप प्रस्तुत हुआ, जिसके फलस्वरूप आत्मजयी व्यक्तित्व को 'भगवान्', 'जगन्नाथ', 'परमेश्वर' आदि विशेषणों से अभिहित किया जाने लगा। निवत्ति-धर्म की प्रधानता होने पर भी, प्रवृत्ति मार्ग की सर्वथा हेयता नहीं मानी गई, और दुष्प्रवृत्तियों से बचने के लिए शुभ कर्मों की उपादेयता को स्वीकारा गया। तीर्थकर की वाणी-'आगम' को धर्माधर्म के निर्णायक शास्त्र के रूप में वही स्थान प्राप्त हुआ जैसा स्थान 'वेद' को सप्टि
वरवादी परम्परा में प्राप्त था। कालान्तर में वैदिक व अवैदिक परम्पराओं के रूप में दोनों की पृथक-पृथक प्रसिद्धि व मान्यता प्रचलित होती गई। श्रमण संस्कृति व धम
संयम व योग-साधना को प्रमुखता देने वाली अवैदिक विचारधारा के रूप में श्रमण विचारधारा को मान्यता प्राप्त त्यागवादी, संयमप्रधान अध्यात्मवादी, निवृत्तिमार्गी या निवृत्तिप्रधान विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्कृति है। इसका नाम श्रमण विचारधारा है, क्योंकि इसमें 'श्रम' यानी तपस्या को प्रधानता प्राप्त है, साथ ही तपस्यादि अनुष्ठान का सम्यक आस्था व सद्विवेक से अनुप्राणित होना भी अपेक्षित/अनिवार्य माना गया है । इसकी मान्यता है कि परम शान्ति किसी बाह्य देवी शक्ति की उपासना या उसकी कृपा से नहीं, अपितु 'शम' यानी मनोविकारों का प्रशमन करते हुए अपने अन्दर समता या वीतरागता उत्पन्न कर प्राप्त की जा सकती है। मोक्ष में अलौकिक सुख आनन्द की अभिव्यक्ति होती है।
जैन परम्परा में वीतरागी आत्मा ही उपास्य है। इस मान्यता के कारण देव, गुरु व शास्त्र-इन सभी की वीतरागता आवश्यक प्रतिपादित की गई। समता व शान्ति (शम) के समर्थक होने से इस विचारधारा का 'समण' व 'शमन' नाम सार्थक हो जाते हैं । समताभावी साधक ही 'श्रमण' कहलाने का अधिकारी माना गया है। श्रमण धर्म व आचार
दार्शनिक विचारों के विकास की प्रक्रिया में मानव-जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए हैं-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष । इन में धर्म का विशेष स्थान है, क्योंकि वह चरम पुरुषार्थ 'मोक्ष' का प्रधान हेतु है । अर्थ व काम पुरुषार्थ की साधना के लिए भी उनके धर्मानकुल होने की अनिवार्यता शास्त्रों में प्रतिपादित की गई है।
मोक्ष-मार्ग आध्यात्मिक दृष्टि से 'व्यक्तित्व' के उत्थान की एक प्रत्रिया है, और इस प्रत्रिया में साधक का स्वतः लौकिक/ सांसारिक दष्टि से भी अभ्युदय होता जाता है। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति में सामान्यतः अभ्युदय व निःश्रेयस् के साधक आचारविचार को 'धर्म' माना गया है । 'धर्म' व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में अग्रसर करता उच्च स्थान पर टिकाए रखता है. साथ ही नीचे गिरने से भी रोकता है- यही इसकी द्विमुखी धारणप्रकृति है । इसलिए 'धर्म' का लक्षण 'धारण करना' भी शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है।
धर्म शब्द, भारतीय संस्कृति में, नैतिक आचार और कर्तव्य के लिए, साथ ही वैयक्तिक आत्म-गुण व धार्मिक पुण्य के लिए व्यवहृत हुआ है । नैतिक कर्तव्यों के रूप में 'धर्म' का वर्गीकरण करते समय मुख्यतः तीन बातें लक्ष्य में रखी गई हैं-(१) वैयक्तिक आत्मिक परिष्कार या उन्नयन । (२) समाज के साथ सम्बन्ध । (३) पारमार्थिक कल्याण। दूसरे शब्दों में, नैतिक कर्तव्यों के विधान में वैयक्तिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसके सामाजिक पर्यावरण का भी ध्यान रखा गया है। सामान्य धर्म, वर्णाश्रम धर्म, आपद् धर्म इत्यादि विविध रूपों में नैतिक आचरणों का वर्गीकरण प्राप्त होता है, जिससे यह स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तकों ने जहां समाज के सभी व्यक्तियों के लिए धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, विवेक, शास्त्रीय व आध्यात्मिक ज्ञान, सत्य, अक्रोध आदि सामान्य धर्म व नीति का पालन करना आवश्यक समझा, वहीं समाज में व्यक्ति के
जैन धर्म एवं आचार
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