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नानिंग ?) वंश के अथवा नाल्हि (नालि ?) गांव के अग्रवाल-कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता का नाम सिनाथू (शाह नाथू ?) या नाथू था। वे अपने कुल के सूर्य थे। काव्यकारिता में उन्हें इतना यश मिला कि वे लोक में 'कवि-कंकण' के नाम से प्रसिद्ध हए । इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार की सूचना नहीं मिलती है। कवि की गुरु परम्परा अथवा जीवन की घटनाओं के सम्बन्ध में किसी प्रकार की सूचना का अभाव है। यह अन्त: साक्ष्य मात्र है। बहिःसाक्ष्य का सर्वथा अभाव है।
छीहल की रचनाओं में वर्णित भौगोलिक परिवेश एवं उनकी रचनागत विशिष्टताओं के आधार पर भी कुछ अनुमान किये गये हैं । 'पंच-सहेली' में तालाबों आदि के उल्लेख के आधार पर मिश्रबन्धुओं ने अनुमान किया है कि "ये मारवाड़ की तरफ के" थे (मिश्रबन्धु-विनोद, प्रथम भाग २२३) । आचार्य शुक्ल ने भी इन्हें "राजपूताने की ओर का" स्वीकार किया है, पर उन्होंने अपने अनुमान के कारणों का उल्लेख नहीं किया है। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव के कारण डॉ. मोतीलाल मेनारिया, डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, डॉ. राम कुमार वर्मा और डॉ० प्रेमसागर जैन ने भी इन्हें राजपूताना का निवासी मानना चाहा है। वस्तुत: ऐसा अनुमान किया जाना अनुचित प्रतीत नहीं होता। समस्त रचनाओं की भाषा-शैली के आधार पर इनका सम्बन्ध राजस्थान से जोड़ना संगत है : भले ही इनका जन्म किसी अन्य क्षेत्र में हुआ हो पर इन्होंने अपनी कर्मस्थली राजस्थान को अवश्य बनाया होगा।
___श्री मोहनचन्द दलीचन्द देसाई ने छोहल को जैनेतर कवि माना था (जैन गुर्जर कविओ, पृष्ठ २११६), पर 'पंच-सहेली' के अतिरिक्त शेष रचनाओं में छीहल ने अरिहन्तों एवं जैन देवों का स्तवन किया है जो उनके जैन मतानुयायी होने के साक्ष्य उपस्थित करते हैं। अतः श्री देसाई का अनुमान (जनेतर होना) अब मिथ्या प्रतीत होता है। उनकी कृतियाँ उन्हें जैन कवि ही सिद्ध करती हैं। पुनः केवल जैन-शास्त्र भाण्डारों में ही छोहल की कृतियों के हस्तलेखों का मिलना भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है। अस्तु, छोहल को जनेतर कवि कहने का भ्रम अनुचित है । (ग) छोहल का समय
छोहल की दो रचनाओं में उनके रचना-काल का उल्लेख है। यथाक. पंच सहेली (विक्रमाब्द १५७५)
पनरह सइ पचहत्तरउ, पूणिम फागुण मास ।
पंच-सहेली बरणवी, कवि छोहल परगास ॥६८।। ख. बावनी (विक्रमाब्द १५८४)
चउरासो अग्गला सइ जु पनरह संवच्छर ।
सुकुल पम्य अष्टमी मास कातिग गुरुवासर ।।५३।। इन रचनाओं के रचनाकाल के आधार पर अनुमित किया जायगा कि छीहल विक्रमान्द १५७५-१५८४ में कविता रच रहे थे। और किसी भी कृति में रचनाकाल उल्लिखित नहीं है । सभा रचनाओं के अध्ययन-अनुशीलन से ऐसा निश्चय होता है कि पंच-सहेली' कदाचित पहली रचना है। 'पंच-सहेली' के रूप में मीठा मन कं भावतां' का जो 'सरस बखान' कवि ने किया है, वह उसके भावक किशोर. मानस का सहज उच्छल प्रकाशन भी है। इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि कवि ने उसकी रचना बीस-बाईस वर्ष की अवस्था में की होगी । अस्तु, छीहल का जन्म अनुमानतः विक्रमाब्द १५५५ के आस-पास हुआ होगा। वह कितने वर्षों तक जीवित रहा, यह जानने के लिए कोई स्पष्ट आधार नहीं है, पर विक्रमाब्द १५८४ तक वह अवश्य जीवित था।
अस्तु, मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि छोहल विक्रम की सोलहवीं शती उत्तरार्द्ध में वर्तमान थे और उनका रचनाकाल कम-से-कम विक्रमाब्द १५७५-१५८४ अवश्य था। (घ) छोहल की रचनाएं
अद्यावधि छीहल की निम्नांकित रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न जैन-शास्त्रभाण्डारों में उपलब्ध हुई हैं : १. पंच-सहेली-रचनाकाल १५७५ वि० सं० ४. पन्थी-गीत २. बावनी -, १५८४ वि० सं० ५. पंचेन्द्रिय वेलि ३. उदर-गीत
६. आत्म प्रतिबोध जयमाल
आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज मभिनन्दन पम्प
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