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नहीं कर पाते। विवाहोत्सव में भोजनार्थ वध्य पशुओं का आतं क्रन्दन सुनकर उनका निवेद प्रबल हो जाता है और वे वैवाहिक कर्म को बीच में ही छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं। अदम्य काम-शत्रु को पराजित कर उनकी साधना की परिणति कैवल्य प्राप्ति में होती है आर वे तीर्थकर पद को प्राप्त करते हैं।
इसी प्रकार राजमती दृढनिश्चयी सती नायिका है । वह शीलसम्पन्न तथा अतुल रूपवती है। उसे नेमिनाथ की पत्ता बनने का सौभाग्य मिलने वाला था, किन्तु क्रूर विधि ने निमिष मात्र में हो उसकी नवोदित आशाओं पर पानी फेर दिया। विवाद में भावी पापक हिंसा से उद्विग्न होकर नेमिनाथ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इस अकारण निराकरण से राजुल स्तब्ध रह जाती है। बंधजनों के समझाने-बझाने से उसके तप्त हृदय को सान्त्वना तो मिलती है; किन्तु उसका जीवन-कोश रीत चुका है। वह मन से नेमिनाथ को सर्वस्व अर्पित कर चुकी थी, अत: उसे संसार में अन्य कुछ भी ग्राह्य नहीं। जीवन की सुख-सुविधाओं तथा प्रलोभनों का तणवत् परित्याग कर वह तप का कंटीला मार्ग ग्रहण करती है और केवलज्ञानी नेमि प्रभु से पूर्व परम पद पाकर अद्भुत सौभाग्य प्राप्त करती है।
प्रस्तुत लेख में नेमिनाथ एवं राजमती से संबंधित यथासंभव ज्ञात सभी हिन्दी-रचनाओं का विवरण देना भी अप्रासंगिक न होगा । कृतियों का यह विवरण विक्रम-शती के काल-क्रमानुसार है
भगवान नेमिनाथ एवं राजमती के जीवन प्रसंग पर आधारित देश भाषा (हिन्दी) में लिखी संभवतः सबसे पहली रचना कवि श्री विनयचन्द सरि द्वारा विक्रम की १४ वीं शताब्दी के मध्य में रचित' 'नेमिनाथ चउपई' मिलती है। इसमें राजमती के वियोग का वर्णन कवि ने अपर्व तल्लीनता एवं काव्यात्मकता के साथ किया है। आदिकालीन हिन्दी साहित्य की यह अत्यन्त प्रसिद्ध तथा महत्त्वपर्ण कृति है । कवि पाहणु ने विक्रम १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'नेमिनाथ बारहमासा रासो' की रचना की थी। यह रचना अपर्ण प्राप्त है। रचना की भाषा सरल, सरस और व्यवहृत भाषा है। प्राप्य पद्यों से पता चलता है कि कवि ने रचना मे बारह मासों का स्वाभाविक एवं सुन्दर वर्णन किया होगा। १४ वीं शताब्दी में ही 'पद्मकवि' द्वारा रचित 'नेमिनाथ फाग" नामक एक रचना का और उल्लेख मिलता है। संभवतः यह राजस्थानी हिन्दी की रचना है । इसी शताब्दी में कवि समुधर कृत 'नेमिनाथ फाग' की प्रति भी संप्राप्य है।
श्री राजशेखर सूरि ने 'नेमिनाथ फागु' नामक कृति को छन्दोबद्ध किया। इसका रचना काल विक्रमी सम्वत १४०५ के लगभग माना जाता है । इसमें नेमिनाथ और राजुल की कथा का काव्यमय निरूपण हुआ है। यह २७ पद्यों का छोटा-सा खण्डकाव्य है। कवि कान्ह द्वारा विक्रमी १५ वीं शताब्दी में फागरूप में 'नेमिनाथ फाग बारह मासा' नामक रचना उपलब्ध होती है । इसमें फाग और बारहमासा दोनों काव्यरूपों के गुण विद्यमान हैं। रचना काव्यात्मक तथा पर्याप्त सरस है। पूरा काव्य बड़ा ही करुण बन पड़ा है। श्री हीरानन्द सरि ने भी विक्रमी १५ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक 'नेमिनाथ बारहमासा' की रचना की थी, जिसकी प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में सुरक्षित होना बतलाया जाता है।
भट्टारक सकल कीर्ति (जन्म सम्बत् १४४३ मृत्यु सम्बत् १४६६) की 'नेमिश्वर गीत' नामक एक रचना सुलभ है, जिसमें राजमती एवं नेमिनाथ के वियोग का वर्णन है। यह संगीत-प्रधान रचना है। श्री सोमसुन्दर सूरि (रचनाकाल वि० सं० १४५०-१४६१) ने 'नेमिनाथ नवरस फाग' नामक रचना का प्रणयन संभवतः सं० १४८१ में किया था। इसकी भाषा संस्कृत, प्राकृत और गुजराती मिश्रित हिन्दी है । यह एक छोटा काव्य है । उपाध्याय जयसागर (रचनाकाल वि० सं १४७८-१४६५) जिन्होने जिनराज सरि से दीक्षा ली थी, ने नेमिनाथ विवाहलों की रचना की थी। ब्रह्म जिनदास भट्टारक सकलकीति के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने 'नेमीश्वर रास' नामक रचना लिखी है जिस पर गुजराती का प्रभाव है। इनका समय १५वीं शताब्दी का उत्तराद्ध और १६वीं का पूर्वार्द्ध है।
१. इसका रचना-काल विवादास्पद है। इसका समय सं० १३५३ से सं० १३५८ के बीच कहीं हो सकता है। इस रचना से पहले की एक और रचना
सुमति गणि द्वारा सं० १२६० में रचित 'नेमिनाथ रास' मिलती है किंतु इसकी भाषा के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कोई इसे देश भाषा की रचना
कहता है और कोई अपभ्रश की रचना मानता है। नेमिनाथ चउपई का प्रकाशन सन् १९२० में 'प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' में हुमा था। २. इस रचना की प्रति १५वीं शताब्दी की उपलब्ध है पौर श्री अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है। रचना में सिर्फ पौने सात पद्य हैं। ३. 'काग' एक प्रकार का लोकगीत है जो बसंत ऋत में गाया जाता था। मागे चलकर उसका प्रयोग पानन्द-वर्णन पौर सौन्दर्यनिरूपण में होने लगा। ४. १५वीं शताब्दी की इन रचनामों का उल्लेख भी प्राप्त होता है-जयसिंहसरि क त 'प्रथम एवं द्वितीय नेमिनाथ फागु,' जयशेख र क त 'नेमिनाथ
फागु', रत्नमण्डल गणि क त 'नेमिनाथ नवरस फाग'. समराक त, 'नेमिनाथ फाग समधर कत, 'नेमिनाथ फाग', जिनरत्ण सूरि क त 'नेमिनाथ स्तवन', सोमसुन्दर सूरि शिष्य कत 'नेमिनाथ नवभव स्तवन'. जयशेख रमरि क त 'नेमिनाथ धवल,' माणिक्यसन्दर मूरि क त 'म मिश्वर चरित फाग बंध'
विवाह के वर्णन-प्रधान काव्यों की संज्ञा 'विवाह.' 'विवाहउल.' 'विवाहलो' और 'विवाहला' पाई जाती है किन्तु भक्तिपरकं कतियों में भौतिक विवाह 'विवाहला' नहीं कहलाता। जब प्राराध्य देव दीक्षाकूमारी संयमत्री या मक्तिबध का वरण करता है, तो वह इन संज्ञामों से अभिहित होता है।
बन साहित्यानुशीलन
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