________________
आदर्श वीरता का उदाहरण क्षमा वीर है । क्षमा पृथ्वी को भी कहते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी बाहरी हलचल और भीतरी उद्वेग को समभावपूर्वक सहन करती है, उसी प्रकार सच्चा वीर शरीर और आत्मा को अलग-अलग समझता हुआ सब प्रकार के दुःखों और कष्टों को समभावपूर्वक सहन करता है। सच तो यह है कि उसकी चेतना का स्तर इतना अधिक उन्नत हो जाता है कि उसके लिये वस्तु, व्यक्ति और घटना का प्रत्यक्षीकरण ही बदल जाता है । तब उसे दुःख दुःख नहीं लगता, सुख सुख नहीं लगता। वह सुख-दुख से परे अक्षय, अव्याबाध, अनन्त आनन्द में रमण करने लगता है। वह क्रोध को क्षमा से, मान को मदुता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीत लेता है
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायमवज्जवमावेण, लोभ संतोसओं जिणे ॥' यह कषाय-विजय ही श्रेष्ठ विजय है। क्षमावीर निर्भीक और अहिंसक होता है। प्रतिशोध लेने की क्षमता होते हए भी वह किसी से प्रतिशोध नहीं लेता। क्षमा धारण करने से ही अहिंसा वीरों का धर्म बनती है। उत्तराध्ययन' सूत्र के २६वें 'सम्यकत्व-पराक्रम अध्ययन में गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं-धमावणयाएणं भन्ते । जीवे कि जणयइ ?
हे भगवन् ! अपने अपराध की क्षमा मांगने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है ?
उत्तर में भगवान् कहते हैं-खमावणयाएणं पल्हायण भाव जणयई, पल्हायण भावमुवगए य सव्वपाणमय जीव सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएर्द, मित्ती भावमुवगए यावि जीव भावविसोहि काऊण गिक्ष्मए भवई ॥ १७॥
अर्थात् क्षमा मांगने से चित्त में आह लाद भाव का संचार होता है, अर्थात् मन प्रसन्न होता है। प्रसन्न चित्त वाला जीव सब प्राणी, भत, जीव और सत्वों के साथ मैत्रीभाव स्थापित करता है। समस्त प्राणियों के साथ मैत्री भाव को प्राप्त हुआ जीव अपने भावों को विरुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है।
निर्भीकता का यह भाव वीरता की कसौटी है । बाहरी वीरता में शत्रु से हमेशा भय बना रहता है, उसके प्रति शासक और शासित, जीत और हार, स्वामी और सेवक का भाव रहने से मन में संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं । इस बात का भय और आशंका बराबर बनी रहती है कि कब शासित और सेवक विद्रोह कर बैठें। जब तक यह भय बना रहता है तब तक मन बेचैनी और व्याकुलता से घिरा रहता है। पर सच्चा वीर निराकुल और निर्वेद होता है। उसे न किसी पर विजय प्राप्त करना ध्येय रहता है और न उस पर कोई विजय प्राप्त कर सकता है। वह सदा समताभाव-वीतरागभाव में विचरण करता है। उसे अपनी वीरता को प्रकट करने के लिये किन्हीं बाहरी साधनों का आश्रय नहीं लेना पड़ता। अपने तप और संयम द्वारा ही वह वीरत्व का वरण करता है। जैनधर्म वीरों का धर्म
जैन धर्म के लिये आगम ग्रन्थों में जो नाम आये हैं, उनमें मुख्य हैं जिन धर्म, अहंत धर्म, निर्ग्रन्थ धर्म और श्रमण धर्म। ये सभी नाम बीर भावना के परिचायक हैं । 'जिन' वह है जिसने अपने आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है। जिन' के अनुयायी जैन कहलाते हैं । 'अर्हत' धर्म पूर्ण योग्यता को प्राप्त करने का धर्म है। अपनी योग्यता को प्रकटाने के लिये आत्मा पर लगे हुए कर्म पुद्गलों को ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप की साधना द्वारा नष्ट करना पड़ता है । 'निर्ग्रन्थ' धर्म वह धर्म है जिसमें कषाय भावों से बँधी गाँठों को खोलने, नष्ट करने के लिये आत्मा के क्षमा, मार्दव, आर्जव, त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों को जागृत करना होता है । 'श्रमण' धर्म वह धर्म है, जिसमें अपने ही पुरुषार्थ को जागृत कर, विषम भावों को नष्ट कर, चित्त की कुकृतियों को उपशांत कर समता भाव में आना होता है।
स्पष्ट है कि इन सभी साधनाओं की प्रक्रिया में साधक का आन्तरिक पराक्रम ही मुख्य आधार है। आत्मा से परे किसी अन्य परोक्ष शक्ति की कृपा पर यह विजय-आत्मजय आधारित नहीं है। भगवान महावीर की महावीरता बाहरी युद्धों की विजय पर नहीं, अपने आन्तरिक विकारों की विजय पर ही निर्भर है। अत: यह वीरता यद्धवीर की वीरता नहीं, क्षमावीर की वीरता है।
१. उत्तराध्ययन ६।३४ २. दशवकालिक ८३६
मैन साहित्यानुशीलन
१२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org