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________________ पुरुषार्थ या वीरत्व ही सहायता बनता है । अपने वीरत्व और पुरुषार्थ के बल पर साधक अपने कर्मफल में परिवर्तन ला सकता है । कर्म परिवर्तन के निम्नलिखित चार सिद्धान्त इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं। १. उदीरणा-नियत अवधि से पहले कर्म का उदय में आना। २. उद्वर्तन-कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में अभिवृद्धि होना। ३. अपवर्तन—कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में कमी होना। ४. संक्रमण-एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति में संक्रमण होना। उक्त सिद्धान्त के आधार पर साधक अपने पुरुषार्थ के बल से बंधे हुए कर्मों की अवधि को घटा-बढ़ा सकता है और कर्मफल की शक्ति मन्द अथवा तीव्र कर सकता है। यही नहीं, नियत अवधि से पहले कर्म को भोगा जा सकता है और उनकी प्रकृति को बदला जा सकता है। वीरता के प्रकार वीर भावना का स्वातन्त्र्यभाव से गहरा सम्बन्ध है। बीर अपने पर किसी का नियंत्रण और शासन नहीं चाहता। मानव सभ्यता का इतिहात स्वतन्त्र भावना की रक्षा के लिये लड़े जाने वाले युद्धों का इतिहास है। इन युद्धों के मूल में साम्राज्य-विस्तार, सत्ता-विस्तार, यशोलिप्सा, और लौकिक समृद्धि की प्राप्ति ही मुख्य कारण रहे हैं। इन बाहरी भौतिक पदार्थों और राज्यों पर विजय प्राप्त करने वाले वीरों के लिए ही कहा गया है—“वीरभोग्या वसुन्धरा।" ये वीर शारीरिक और साम्पत्तिक बल में अद्वितीय होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार चक्रवर्ती चौदह रत्नों के धारक और छह खण्ड पृथ्वी के स्वामी होते हैं । वासुदेव भरत क्षेत्र के तीन खण्डों और सात रत्नों के स्वामी होते हैं इनका अतिसय बतलाते हुए कहा गया है कि वासुदेव अतुल बली होते हैं। कुएँ के तट पर बैठे हुए वासुदेव को जंजीर से बाँध कर हाथी, घोडे, रथ और पदाति रूप चतुरंगिणी सेना सहित सोलह हजार राजा भी खींचने लगें तो वे उसे नहीं खींच सकते। किन्तु उसी जंजीर को बांये हाथ से पकड़कर वासुदेव अपनी तरफ बड़ी आसानी से खींच सकता है। वासुदेव का जो बल बतलाया गया है उससे दुगुना बल चक्रवर्ती में होता है। तीर्थकर चक्रवर्ती से भी अधिक बलशाली होते हैं। उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि वीरता के दो प्रकार हैं—एक बहिर्मुखी बीरता, और दूसरी अन्तर्मुखी वीरता। बहिर्मुखी वीरता की अपनी सीमा है। जैन दर्शन में उसके कीर्तिमान माने गये हैं चक्रवर्ती जो भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर विजय प्राप्त करते हैं। लौकिक महाकाव्यों में रामायण, महाभारत, पृथ्वीराज रासो में बहिर्मुखी वीरों के अतिरंजनापूर्ण यशोगान भरे पड़े हैं। जैन साहित्य में भी ऐसे वीरों का उल्लेख और वर्णन मिलता है। पर उनकी यह वीरता जीवन का ध्येय या आदर्श नहीं मानी गई है । जैन इतिहास में ऐसे सैकड़ों वीर राजा हो गये हैं, पर वे वन्दनीय-पूजनीय नहीं हैं । वे वन्दनीय-पूजनीय तब बनते हैं जब उनकी बहिर्मुखी वीरता अन्तर्मुखी बनती है। इन अन्तर्मुखी वीरों में तीर्थकर, केवली, श्रमण, श्रमणियाँ आदि आते हैं। बहिर्मुखी वीरता के अन्तर्मुखी वीरता में रूपान्तरित होने का आदर्श उदाहरण भरत बाहुबली का है। भरत चक्रवर्ती बाहुबली पर विजय प्राप्त करने के लिए विराट सेना लेकर कूच करते हैं। दोनों सेनाओं में परस्पर युद्ध होता है। अन्तत: भयंकर जन-संहार से बचने के लिये दोनों भाई मिलकर निर्णायक द्वन्द्व-युद्ध के लिये सहमत होते हैं। दोनों में दृष्टियुद्ध, वाकयुद्ध, बाहुयुद्ध होता है और इन सबमें भरत पराजित हो जाते हैं। तब भरत सोचते हैं क्या बाहुबली चक्रवर्ती है जिससे कि मैं कमजोर पड़ रहा हूं? इस विचार के साथ ही वे आवेश में आकर बाहुबली के सिरच्छेदन के लिए चक्ररत्न से उस पर वार करते हैं। बाहबली प्रतिक्रिया स्वरूप क्रुद्ध हो चक्र को पकड़ने का प्रयत्न करते हुए मूष्टि उठाकर सोचते हैं-मूझे धर्म छोड़कर भ्रातवध का दष्टकर्म नहीं करना चाहिये । ऋषभ की सन्तानों की परम्परा हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की है। प्रेम ही मेरी कुल-परम्परा है। किन्तु जमा हआ हाथ खाली कैसे जाये? उन्होंने विवेक से काम लिया, अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर दे मारा और बालों का लंचन करके वे श्रमण बन गये। उन्होंने ऋषभदेव के चरणों में वहीं से भावपूर्वक नमन किया, कृत अपराध के लिये क्षमा-प्रार्थना की और उग्र तपस्या कर अहं का विसर्जन कर, मुक्ति रूपी वधू का वरण किया। भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि तीर्थकर अन्तर्मुखी वीरता के सर्वोपरि आदर्श हैं। भगवान् महावीर के समय में वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी थी। ब्राह्मणों और क्षत्रियों का आदर्श अत्यन्त संकीर्ण हो गया था । ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु-बलि को महत्त्व दे रहे थे तो क्षत्रिय देश-रक्षा के नाम पर युद्ध-जनित हिंसा और सत्ता-लिप्सा को बढ़ावा दे रहे थे। महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में पैदा हुए थे। उन्होंने क्षत्रियत्व के मूल आदर्श रक्षा भाव को पहचाना और विचार किया कि रक्षा के नाम पर कितनी हिंसा हो रही है, पीड़ा-मुक्ति के नाम पर कितनी पीड़ा दी जा रही है। सच्चा क्षत्रियत्व दूसरे को जीतने में नहीं, स्वयं अपने को जीतने में है, पर-नियन्त्रण नहीं स्वनियन्त्रण ही सच्ची विजय है। उन्होंने सम्पूर्ण राज्य-वैभव और शासन-सत्ता का परित्याग कर आत्मविजय के लिए प्रयाण किया। वे संन्यस्त होकर कठोर ध्यान जैन साहित्यानुशीलन १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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