SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाङ्मय में यह विशेष रूप से प्रतीकार्थ रूप में प्रचलित है। वहां आर्ष ग्रंथों में कान्ति, तेज, सम्पन्नता के लिए यह शब्द व्यवहृत है। जैनहिन्दी-पूजा-काव्य में क्षुधा रोग को शान्त करने के लिए चढ़ाया गया मिष्ठान्न वस्तुतः नैवेद्य कहलाता है। जैन-हिन्दी-पूजा में समस्त पुद्गल भोग एवं संयोग से मुक्त होने के लिए अपने सहज आत्म स्वभाव का स्वाद लेते रहने के लिए हे भगवान् ! हम सरस भोजन आपके सामने चढ़ाते हैं फलस्वरूप हमें समस्त विषय-वासनाओं, भोग की इच्छा से निवृत्ति प्राप्त हो ।' नैवेद्य शब्द अपने इसी अभिप्राय को लेकर जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजा कवि द्यानतराय प्रणीत 'श्री बीस तीर्थंकर पूजा' नामक रचना में व्यवहृत है। उन्नीसवीं शती के पूजा कवि बख्तावररत्न विरचित 'श्री कुंथुनाथ जिन पूजा' नामक कृति में नैवेद्य शब्द परिलक्षित है। बीसवीं शती के पूजा कवि दौलतराम विरचित 'श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा' नामक रचना में नैवेद्य शब्द इसी अभिप्राय से व्यवहृत है। दीप-दीप्यते प्रकाश्यते मोहान्धकारं विनश्यति इति दीर्घ । दीप का अर्थ लोक में 'दिया' प्रकाश का उपकरण विशेष के लिए व्यवहृत है । जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में इस शब्द का प्रयोग प्रतीकार्थ में हुआ है। मोहान्धकार को शान्त करने के लिए दीप रूपी ज्ञान का अर्घ्य आवश्यक है। भवि जीव निर्मल आत्मबोध के विकास के लिए जिन मंदिर में घृत दीपक जलावें फलस्वरूप उनके मन-मंदिर में सद्गुण (अहिंसा, संयम, इच्छारोध तप) रूपी दीप का प्रकाश फैल जाय । पूजा में आवश्यक सामग्री में गोले (नारियल) के श्वेतशकल 'दीप' का प्रतीकार्थ लेकर दीप शब्द प्रयोग में आता है। ___अठारहवीं शती के पूजाकार द्यानतराय ने श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा' नामक पूजा कृति में 'दीप' शब्द का उक्त अर्थ के लिए व्यवहार किया है। उन्नीसवीं शती के पूजा रचयिता मल्ल जी रचित 'श्री क्षमावाणी पूजा' नामक रचना में 'दीप' शब्द इसी अभिप्राय से गृहीत है। बीसवीं शती के पूजाकार भविलालजू कृत 'श्री सिद्ध पूजा भाषा' नामक रचना में 'दीप' शब्द व्यजित है।" धूप-धूप्यते अष्ट कर्माणां विनाशो भवति अनेन अतोधूपः । धूप गन्ध द्रव्यों से मिश्रित एक द्रव्य-विशेष है जो मात्र सुगंधि के लिए अथवा देव-पूजन के लिए जलाया जाता है। जैन दर्शन में यह सुगन्धित द्रव्य 'धूप' शब्द प्रतीकार्थ है तथा पूजा प्रसंग में अष्ट कर्मों का विनाशक माना गया है। जन-हिन्दी-पूजा में अशुभ पाप के संग से बचने के लिए समस्त कर्म रूपी ईंधन को जलाने के लिए प्रफुल्लित हृदय से जिनेन्द्र भगवान् की सुगंधित धूप-पूजा की जाती है ताकि शुद्ध संवर रूप आत्मिक शक्ति का विकास हो जिससे कर्मबंध रुक जाएं।" १. वसुनंदि श्रावकाचार, ४६६ २. सकल पुद्गन संग विवर्जनं, सहज चेतन भाव विलासकं । सरस भोजन नव्य निवेदनात्, परम तत्त्वमयं हियजाम्यहं ।। जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्ध शताब्दी स्मृति ग्र'थ, पृ० ५५ ३. श्री बोस तीर्थकर पूजा, द्यानतराय । ४. श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न । ५. श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम । ६. भविक निर्मल बोध विकाशकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनं । मुगुण राग विशुद्ध समन्वित, दघतुभाव विकाशकृते जनाः । जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, साद्धं शताब्दि स्मृति ग्रंथ, पृ०५५ ७. सागारधर्मामृत-३०-३१ ८. श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, यानतराय । ६. श्री क्षमावाणीपूजा, मल्लजी। . १०. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालजू । ११. सकल कर्म महेधन दाहनं, विमल संवर भाव सुधूपनं । अशुभ पुद्गल संग विजितं, जिनपते। पुरतोऽस्तुसुहर्षितः ।। जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, साद्धं शताब्दि स्मृति ग्रंथ, पृ० ५५ १२२ आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy