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________________ बिन्दुओं से सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र का ऊपर चन्द्र से सिद्धशिला का तथा बिन्दु से सिद्धों का बोध कराते हैं। इस प्रकार सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चरित्र ही भव्य जीव को मोक्ष प्राप्त कराते हैं । जैन वाङ्मय में अक्षत से पूजा करने वाले भक्त का मोक्ष प्राप्त हो जाने का कथन प्राप्त होता है।" प्राकृत और अपच से होता हुआ 'अक्षत' शब्द अपना वही अर्थ समेटे हुए हिन्दी में भी गृहीत है। जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में १वीं शती के कवि द्यानतराय प्रणीत 'श्री अथ पंचमेरु पूजा' नामक कृति में अक्षत शब्द उल्लिखित है । उन्नीसवीं शती के पूजाकार मनरंगलाल विरचित 'श्री नेमिनाथ जिन पूजा' नामक रचना में अक्षत शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है। बीसवीं शती के पूजा काव्य के प्रणेता कुंजिलाल विरचित 'श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा' नामक कृति में अक्षत शब्द का व्यवहार इसी अभिप्राय से हुआ है । " पुष्प - पुष्यति विकसति इह पुष्प: । पुष्प कामदेव का प्रतीक है। लोक में इसका प्रचुर प्रयोग देखा जाता है। जैन काव्य में पुष्प का प्रतीकार्थ है । पुष्प समग्र ऐहिक वासनाओं के विसर्जन का प्रतीक है। पुष्प से पूजा करने वाला कामदेव सदृश देह वाला होता है तथा इस क्षेपण में सुन्दर देह तथा पुष्पमाला की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है । संस्कृत, प्राकृत वाङ्मय में पुष्प शब्द के प्रतीकार्थ की परम्परा हिन्दी जैन काव्य में भी सुरक्षित है। यहां पुष्प कामनाओं के विसर्जन के लिए पूजा काव्य में गृहीत है। जैन - हिन्दी- -पूजा में खिले हुए सुन्दर सुगन्ध युक्त पुष्पों से केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कर मन मंदिर को प्रसन्नता से खिला दो। मन पवित्र निर्मल बन जाने से ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे व विशुद्ध चेतन स्वभाव प्रकट होगा जिससे अनुभव रूपी पुष्पों से आत्मा सुवासित हो जाएगा।" जैन- हिन्दी- पूजा काव्य में १०वीं शती के पूजा कवि दयानतराय प्रणीत श्री चारित्र पूजा' नामक रचना में पुष्प शब्द इसी अर्थ - व्यञ्जना में व्यवहृत है।" उन्नीसवीं शती के पूजा कवि बख्तावररत्न प्रणीत 'श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा' नामक पूजा कृति में पुष्प शब्द उक्त अर्थ में प्रयुक्त है । बीसवीं शती के पूजा रचयिता हीराचंद रचित 'श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा' में पुष्प शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है ।" नैवेद्य - निश्चयेन वेद्यं गृट्ठी यम क्षुधा निवारणाय । नैवेद्य वह खाद्य पदार्थ है जो देवता पर चढ़ाया जाता है।" किन्तु जैन १. ↓ सकल मंगल केलिनिकेतनं, परम मंगल भावमयं जिनं । श्रयति भव्यजनाइति दर्शयन्, दधतुनाथ पुरोऽक्षत स्वस्तिकं ॥ जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दि स्मृति ग्रंथ, प्रकाशक- सार्द्धं शताब्दि महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् १६६५, पृ० ५५ २. वसुनंदि श्रावकाचार, ३२१, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग ३, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृ० ७८ ३. श्री अथ पंच मेरुपूजा, यानतराय । ४. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल । ५. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, कुंजिलाल । ६. वसुनंदि श्रावकाचार, ४८५, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग ३, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृ० ७८ ७. विकच निर्मल शुद्ध मनोरमः, विशद चेतन भाव समुद्भवः । सुपरिणाम प्रमुख धर्म परम तत्वमयं हियजाम्यहं || जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दि स्मृति ग्रंथ, सार्द्धं शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् १९६५, ५५ पृ० म. श्री रत्नत्रय पूजा, द्यानतराव ६. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बढतावररत्न । १०. श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, होराचंद । ११. सागार धर्मामृत ३०-३१ जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only १२१ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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