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________________ जैन हिन्दी- पूजा-काव्य में अष्टद्रव्य और उनका प्रतीकार्थ पूजनं इति पूजा । पूजा शब्द 'पूज' धातु से बना है जिसका अर्थ है अर्चन करना ।' जैन शास्त्रों में सेवा-सत्कार को वैयावृत्य कहा है तथा पूजा को वैयावृत्य माना है। देवाधिदेव चरणों की वंदना ही पूजा है।" जैन धर्मानुसार पूजा-विधान को दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है यथा (क) भाव पूजा (ख) द्रव्य पूजा मूल में भाव पूजा का ही प्रचलन रहा है। कालान्तर में द्रव्यरूपा का प्रचलन हुआ है। द्रव्यरूपा में आराध्य के स्थापन की परिकल्पना की जाती है और उसकी उपासना भी द्रव्यरूप में हुआ करती है। जैन दर्शन कर्म प्रधान है। समग्र कर्म-कुल को यहां आठ भागों में विभाजित किया गया है। इन्हीं के आधार पर अष्टद्रव्यों की कल्पना स्थिर हुई है।* डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' जैन धर्म में पूजा सामग्री को अर्ध्य कहा गया है। वस्तुतः पूजा द्रव्य के सम्मिश्रण को अर्घ्य कहते हैं । जैनेतर लोक में इसे प्रभु के लिए भोग लगाना कहते हैं। भोग्य सामग्री का प्रसाद रूप में सेवन किया जाता है पर जिन वाणी में इसका भिन्न अभिप्राय है। जैन पूजा में अयं निर्माल्य होता है। वह तो जन्म जरादि कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प का प्रतीक होता है । अतएव अर्ध्य सर्वचा असा होता है। जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में इस कल्पना का मौलिक रूप सुरक्षित है। - १. जल, जैन भक्ति में पूजा का विधान अष्टद्रव्यों से किया गया है। पूजा काव्य में प्रयुक्त अष्टद्रव्य अग्रांकित हैं-यथा२. चन्दन, ३. अक्षत, ४. पुष्प, ५. नैवेद्य, ६. दीप, ७. धूप, ८. फल। इन द्रव्यों का क्षेपण अलग-अलग अष्ट फलों की प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प रूप है । यहाँ पर इन्हीं अष्ट द्रव्यों का विवेचन करना हमारा मूलाभिप्रेत है। 1 जल' जायते' इति 'ज', 'जीयते' इति 'ज' तथा 'लीयते' इति 'ल' 'ज' का अर्थ जन्म, 'ल' का अर्थ लीन। इस प्रकार 'ज' तथा 'ल' के योग से जल शब्द निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है - जन्म मरण । लौकिक जगत् में 'जल' का अर्थ पानी है तथा ऐहिक तृषा की तृप्ति हेतु व्यवहृत है। जैन दर्शन में 'जल' का अर्थ महत्वपूर्ण है तथा उसका प्रयोग एक विशेष अभिप्राय के लिए किया जाता है। पूजा प्रसंग में जन्म, जरा, मृत्यु के विनाशार्थ प्रासुक जल का अर्घ्य आवश्यक है। जैन - हिन्दी-पूजा में अनंत ज्ञानी तथा अनंत शक्तिशाली, जन्म, जरा, मृत्यु से परे, स्वयं मुक्त तथा मुक्ति मार्ग के निर्देशक महान् १. राजेन्द्र अभिधानकोश, भाग ४, पृ० १०७३ २. देवाधिदेव चरणे परिचरणं सर्वदुःख निर्हरणम् । परिवाद।। समीचीन धर्मशास्त्र, सम्पादक आचार्य समन्त भद्र, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली, पृ० १५५, श्लोक संख्या, ५ / २६ ३. हिन्दी का जैन पूजा काव्य, डा० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, संगृहीत ग्रंथ भारतवाणी, तृतीय जिल्द, एशिया पब्लिशिंग हाउस, ७-न्यूयार्क १० ५९८ ४. जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी पूजा काव्य की परम्परा ओर उसका आलोचनात्मक अध्ययन, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', आगरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत पी-एच०डी० का शोधप्रबन्ध, सन् १६७८, पृ० १६४ ५. सागार धर्मामृत, आशाधर, प्रकाशक - मूलचंद किसनदास कापड़िया, सूरत, प्रथम संस्करण वीर सं० २४४१, पृ० १०१ श्लोक सं० ३० जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only ११९ 'www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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