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________________ भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि 'राजा सगर को परिवार सहित नष्ट करने की इच्छा करने वाले किसी मायावी ने यह उपाय रचा है ।" बाद में नारद के कहने पर विद्याधरों द्वारा यज्ञ में विघ्न उपस्थित किए गए। पर महाकाल ने पर्वत आदि को जिनेन्द्र के आकार की सुन्दर प्रतिमाओं में परिवर्तित कर दिया और उनकी पूजा करने और तदनन्तर यज्ञ की विधि को प्रारम्भ करने के लिए कहा, क्योंकि जहां जिन बिंब होते हैं, वहां विद्याधरों की शक्तियां भी क्षीण हो जाती हैं।' तदनन्तर विद्याधर कुमार दिनकर देव यज्ञ में विघ्न करने की इच्छा से आया, परन्तु जिन प्रतिमाएं देखकर वापिस लौट गया। इस प्रकार यज्ञ की समाप्ति निर्विघ्न हो गई और पर्वत आदि आयु के अन्त में मृत्यु को प्राप्त कर चिरकाल के लिए नरक में दुःख भोगने लगे । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म में पशु-हिमा का कठोर विरोध किया गया है तथा 'यज्ञानुष्ठान' आदि को कोई स्थान नहीं दिया गया है। इस धर्म में जिनेन्द्र देव की पूजा को ही महत्त्व दिया जाता है और 'यज्ञ' शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। अनेकान्तवाद या स्याद्वाद जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक परामर्श के पहले उसे सीमित तथा सापेक्ष बनाने के विचार से 'स्यात्' विशेषण का जोड़ना अत्यन्त आवश्यक है । 'स्यात्' (कथंचित्) शब्द अस् धातु के विधिलिंग के रूप का तिङन्त प्रातिपदिक अव्यय माना जाता है। घड़े के विषय में हमारा परामर्श 'स्यादस्तिकथंचित् यह विद्यमान है इसी रूप में होना चाहिए। जैन दर्शन प्रत्येक परामर्श वाक्य के साथ 'स्यात्' पद का योग करने के लिए आग्रह करता है। यही सुप्रसिद्ध स्वाद्वाद या अनेकान्तवाद है जो जैन दर्शन की प्रमाणमीमांसा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण देन माना जाता है ।" जैन दर्शन का यह प्रथम सिद्धान्त है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक हुआ करती है ।" जैन दर्शन वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक धर्म के ज्ञान को 'नय' के नाम से पुकारते हैं। नय सिद्धान्त जैन दर्शन का एक मुख्य विषय माना जाता है। इसका विवेचन जैन ग्रन्थों में बड़े विस्तार से किया गया है।" भगवती सूत्र में स्वयं महावीर ने 'स्यादस्ति', 'स्यान्नास्ति' तथा 'स्याद् अव्यक्तम्'- - इन तीन भंगों का स्पष्ट उल्लेख किया है । आगे चलकर इन्हीं मूल भंगों के पारस्परिक मिश्रण से 'सप्तभंगी' की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ 5 जैन न्यायानुसार किसी भी पदार्थ के विषय में स्थादस्ति स्यान्नास्ति स्यादस्ति च नास्ति च स्याद् अवक्तव्यम् स्यादस्ति अवक्तव्यं, स्यान्नास्ति च अवक्तव्यं च स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च' आदि इतने ही प्रकार का ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। अतः सात प्रकारों को धारण करने के कारण यह 'सप्तभंगीनय' कहलाता है। १. वही, ६७ / ३६९ २. वही, ६७ / ४५१ ३. बलदेव उपाध्याय भारतीय दर्शन, वाराणसी १९७१, पृ० १०३ ४. प्रमाणमीमांसा (सिन्धी जैन ग्रन्थमाला : १९३६) प्रस्तावना, पृ० १८ उत्तरपुराण में वर्णित रामकथा का अध्ययन करने से 'अनेकान्तवाद' या 'स्याद्वाद' के सिद्धान्त की पुष्टि हो जाती है, उत्तरपुराण में प्रसंगवश वर्णित 'पर्वत' और 'नारद' के आख्यान से इस मत की पुष्टि करने का प्रयत्न किया गया है। एक बार पर्वत के पिता अपने ' पुत्र और शिष्य नारद, दोनों को आटे का एक बकर नाकर देते हैं और कहते हैं कि जहां कोई भी न देख सके ऐसे स्थान में जाकर चन्दन तथा माला आदि मांगलिक पदार्थों से इसकी पूजा करो फिर कान काटकर इसे आज ही वापिस ले आओ ।" पर्वत सोचता है कि इस वन में कोई भी नहीं देख रहा है, इसलिए वह बकरे के दोनों कान काटकर वापिस लौट आता है ।" लेकिन नारद" सोचता है कि अदृश्य स्थान तो यहां कोई भी नहीं है । चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि सब देख रहे हैं। पक्षी तथा हरिण आदि अनेक जीव भी समीप में उपस्थित हैं । अतः ऐसा विचारकर वह वापिस लौट आता है और सम्पूर्ण वृत्तान्त अपने गुरु को निवेदित कर देता है। ५. बलदेव उपाध्याय भारतीय दर्शन, पृ० १०१ ६. 'एकदेशविशिष्टो यो नयस्य विषयो मतः ।' न्यायावतार, २६ ७. तत्वार्थ सूत्र १/३४-३५ ८ प्रमाणसमुच्चय : पं० सुखलालकृत प्रस्तावना, पृ० १८-२० ६. बलदेव उपाध्याय : भारतीय दर्शन, पृ० १०५ ६ १०. उ० पु०, ६७/३०५-६ ११. वही, ६७ / ३०८ १२. वही, ६७ / ३१४ ८८ 3 Jain Education International , आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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