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________________ धर्मशब्द आचार तथा कर्मकाण्ड दोनों के अर्थ में प्रयुक्त होता है । जैनधर्म में अनागार (मुनि-धर्म) तथा सागार-धर्म (गृहस्थ धर्म) का अभिप्राय आचार से है किन्तु जिनेन्द्र-पूजा आदि के सन्दर्भ में धर्म का स्वरूप कर्मकाण्डपरक रहता है । सागार धर्म (गृहस्थ धर्म ) के पालन में बारह व्रतो----पांच अणुव्रतों (अहिंसाणु व्रत, सत्याणु व्रत, अचौर्याणु व्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह-परिमाणानुव्रत); तीन गुण व्रतों (दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत); चार शिक्षाव्रतों (सामायिक, प्रोषध उपवास, भोगोपभोग-परिमाण, अतिथि-संविभाग आदि) का प्रमुख स्थान है।' अहिंसाणु व्रत का तात्पर्य है देवताओं को प्रसन्न करने, अतिथि-सत्कार करने तथा औषधि-सेवन आदि किसी भी निमित्त से मांस प्राप्त करने के लोभ से प्राणियों की हिंसा न करना । इस व्रत के पालन के लिए जैनधर्म में हिंसामूलक यज्ञों का निषेध किया गया है। वाल्मीकि रामायण में दशरथ पुत्र-प्राप्ति के लिए ऋष्यशृंग द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाते हैं तथा यज्ञोत्थ पायस का वितरण पत्नियों में कराते हैं। जिससे राम, लक्ष्मण आदि पुत्रों की उत्पत्ति होती है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय (जैन रामायण) में यज्ञोत्थ पायस का वितरण नहीं है अपितु जिनेन्द्रों के शान्तिस्नान के गन्धोदक का वितरण है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का तात्पर्य है : विवाहित पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन तथा पुत्री समझ कर व्यवहार करना तथा अपनी पत्नी से ही सन्तुष्ट रहना। इस व्रत के पालन के लिए यद्यपि जैन ग्रन्थों में प्रयास किया गया है तथापि परस्त्री आसक्ति रूप चारित्रिक पतन कतिपय पात्रों में दृष्टिगत होता है यथा पउमचरिय एवं जैन रामायण में साहसगति नामक विद्याधर द्वारा सुग्रीव का रूप धारण कर तारा के साथ काम-क्रोड़ा की चेष्टा। लक्ष्मण का चन्द्रनखा (शूर्पणखा) के प्रति आसक्त होकर उसके पीछे-पीछे जाना" तथा उत्तरपूराण में नारद से सीता के अद्वितीय सौंदर्य के विषय में सुनकर रावण द्वारा राम का रूप धारण कर सीता का हरण करना। आनन्दरामायण में व्यावहारिक जीवन में हिंसा का निषेध किया गया है लेकिन (जैन ग्रन्थों के समान ) देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किये गये हिसामूलक यज्ञों (पुत्रेष्टि यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ) एवं मृग-मांस-बलि का निवारण नहीं किया गया है। ब्रह्मचर्याणुव्रत के पालन की शिक्षा भी यत्र-तत्र ग्रन्थ में दी गयी है लेकिन (फिर भी) कतिपय पात्र इसके पालन में शिथिल दृष्टिगत होते हैं। हनुमान यद्यपि ग्रन्थ में ब्रह्मचारी एवं अविवाहित वणित किये गये हैं, लेकिन सीता-खोज के समय लंका में जाकर राक्षसियों के साथ उनकी अनैतिक चेष्टाएं उनके चारित्रिक पतन को प्रकट करती हैं।१० कर्मकाण्डपरक धर्म का तात्पर्य इष्टदेव की उपासना से है। ब्राह्मण धर्म में सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, महेश को सर्वश्रेष्ठ देव माना गया है तथा अवतारवाद का प्रचलन होने के कारण भक्तों की रक्षा के लिए विष्णु के समय-समय पर राम, कृष्णा आदि के रूप में अवतार लेने का वर्णन किया गया है किन्तु जैन धर्म में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना जाने के कारण देवों की अपेक्षा उन महापुरुषों को श्रेष्ठ माना गया है जो अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते हैं तथा पुनः पृथ्वी पर आकर श्रेष्ठ मानव के रूप में प्रजा को मुक्ति-मार्ग का उपदेश देते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं । " वाल्मीकि रामायण में राम को आदर्श पुरुष माना गया है लेकिन परवर्ती काल में उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय (जैन रामायण) तथा उत्तरपुराण में काव्य के प्रमुख पात्रों राम, लक्ष्मण तथा रावण को साधारण पुरुष न मानकर त्रिषष्टिशलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ह वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव) में शामिल किया गया है जिनमें राम को आठवां बलदेव, लक्ष्मण को नारायण तथा रावण को प्रतिनारायण माना गया है। महापुरुषों की तरह ही इनके जन्म के पहले इनकी माताओं द्वारा देखे गये शुभ स्वप्नों का वर्णन किया गया है। १. मोहनचन्द्र : जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित सामाजिक परिस्थितियां, पृ०३७८ २. वही, पृ०३७६ ३ वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १६ ४. विमलमूरि : पउमचरियम्, पर्व २६; हेमचन्द्र-कृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २०५ ५. मोहनचन्द्र : जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित सामाजिक परिस्थितियां, पृ० ३८० ६. पउमरियम्, पर्व विषष्टिशलाकापुरुषारत, प. २४६-५२ (नोट-जैन ग्रन्थों में बालि-सुग्रीव की शत्रुता न होकर साहसगति तथा सुग्रीव की पाता है।) ७. पउमचरियम्, ४३/४८ ८. उत्तरपुराण, ६८/६३-१०४ ६. मानन्द रामायण, सारकाण्ड, सर्ग १, यागकाण्ड, यात्राकाण्ड १०. वही, ६/२६-२७ ११. Jain Manju "Jain Mythology as depicted in Digambar Literature", p. ४७ १२. पउमचरियम्, ५/१५४-५६ १३. वही, २६/१-६, ७/७६-७८ जैन साहित्यानुशीलन ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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