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इन महाकाव्यों में अप्रत्यक्ष अलौकिक शक्तियों द्वारा किए गए कार्य भी अद्भुत रस का संचार करते हैं। पद्मपुराण में रावण ने तपस्या के द्वारा अपने को किसी भी रूप में परिवर्तित करने की अद्भुत शक्ति प्राप्त कर ली थी।
भ्रामरी विद्या की सहायता से, उत्तरपुराण में, राजा अशनिघोष ने स्वयं को अनेकानेक प्रतिबिम्बों में दर्शा कर, शत्रु को विस्मित कर, सरलता से पराजित कर दिया ।२
जयन्त विजय महाकाव्य में 'पंचपरमेष्ठी' मन्त्र के स्मरणमात्र से ही राजा विक्रमसिंह का भयंकर जंगली जानवर, दावानल एवं राक्षस आदि भी कुछ अहित नहीं कर पाए।'
मल्लिनाथचरित में किसी देवी द्वारा दिए गए रत्न के प्रभाव से सारी शत्रु-सेना युद्ध-क्षेत्र में ही गहरी नींद में सो गई।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में देवी अपराजिता की अद्भुत शक्ति के अद्भुत प्रभाव का उल्लेख, दृढ़प्रतिज्ञ राजा अभयंकर के प्रसंग में प्राप्त है।
पौराणिक वर्णनों के प्रसंग में अद्भुत रस पुराणों में ही अधिक प्राप्त होता है।
जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हरिवंशपुराण में, बालि को वश में करने के लिए विष्णुकुमार मुनि द्वारा बौने का रूप धारण कर, तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लेने का पौराणिक वर्णन सर्वज्ञात है।
पुनः कवि ने जम्बू वृक्ष का अद्भुत वर्णन किया है।
पद्मानन्द महाकाव्य में कवि अमरचन्द्र सूरि ने, अपने पुण्य कार्यों द्वारा श्रीप्रभ विमान में पहुंच जाने पर, राजा महाबल के विस्मय का वर्णन 'शुद्ध सन्देहालंकार' का प्रयोग करके दिया है।
आदिपुराण में जिनसेन के इच्छापूर्ति करने वाले कल्पवृक्षों का वर्णन दिया है।
इन काव्यों में भावी तीर्थंकरों के जन्म से पहले ही इन्द्र द्वारा, उनकी गर्भवती माताओं की सेवा-शुश्रूषा हेतु भेजी गई अप्सराओं का वर्णन अनेक बार मिलता है । धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने स्वर्ग से नीचे उतरती हुई अप्सराओं का सुन्दर वर्णन, राजा महासेन और उसके राजकर्मचारियों के तर्क-वितर्क में 'निश्चयगर्भ सन्देहालंकार' द्वारा किया है।
आदिपुराण में वृषभध्वज तीर्थंकर के जन्म पर इन्द्र द्वारा रूप बदलकर किए गये नृत्य का सुन्दर वर्णन है।"
मुनिसुव्रतमहाकाव्य में कवि अर्हद्दास ने ऐरावत हाथी का बिल्कुल नवीन और आश्चर्योत्पादक वर्णन किया है। इसमें एकावली अलंकार दर्शनीय है।
अत्यधिक सौंदर्य-वर्णन के प्रसंग में अद्भुत रस पुराणों की अपेक्षा महाकाव्यों में अधिक प्राप्त होता है। हरिवंशपुराण में
१. पद्मपुराण,८८७-८९ २. उत्तरपुराण, ६२/२७८-७६ ३. जयन्तविजय, २२७ ४. मल्लिनाथचरित, १२७२-७४ ५. अथाकस्माद् द्विषच्छेददक्षिणोऽपि न दक्षिणः । बाहुर्बभूव भूभः खड्गव्यापारणक्षमः ।। बाहस्तम्भेन तेनोच्चरन्सःसन्तापवान् नृपः ।
मन्त्रान्निग्रहमापन्नः पन्नगेन्द्र इवाभवत् ।। धर्माभ्युदय, २२४७-४८ ६. हरिवंशपुराण, २०/५३-५४ ७. वही, ५१७७-८३ ८. सुप्तोत्थित इव पश्यन्निति चित्ते सोऽथ चिन्तयामास, कि स्वप्न: ? कि माया ? किमिन्द्रजालम् ? किमीदृगिदम् ? मामुद्दिश्य किमेतत् प्रवर्तते प्रीतिकारि संगीतम् ? परिवारोऽयं विनयी स्वामीयति मां समग्रः किम् ।। पद्मानन्द, ४/१२-१३ ६. आदिपुराण,६४१-४८ १०. तारकाः क्व न दिवोदिता तो विद्य तोऽपि न वियत्यनम्बदे।
क्वाप्यनेधसि न वह्नयो महस्तत्किमेतदिति दत्तविस्मया: ।। धर्मशर्माभ्युदय, ५/२ ११. आदिपुराण, १४१३०-१३१ १२. द्वाविशदास्यानि मुखेऽष्टदता दंतेऽब्धिरब्धौ बिसिनी बिसिन्याम् ।
द्वात्रिंशदब्जानि दला नि चाब्जे द्वात्रिंशर्दिद्र द्विरदस्य रेजुः ।।
जैन साहित्यानुशीलन
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