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________________ द्वारा भरपेट खा लेने के बाद भी समाप्त नहीं हुई।' इसी प्रकार का वर्णन महाभारत में भी प्राप्य है। आदिपुराण में कुबेरप्रिय व्यापारी के वक्षःस्थल पर तलवार से किया गया प्रहार भी मणिहार में परिवर्तित हो जाता है। गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण में भी अपहृत एवं प्रताड़ित, राजा चेटक की पुत्री चन्दना, महावीर स्वामी के आने मात्र से केवल उनकी भक्त होने के कारण, सभी यातनाओं में मुक्त हो गई। तीर्थंकरों की अलौकिक शक्ति केवल मनुष्यों को नहीं, अपितु पशु-पक्षियों को भी प्रभावित करती है। इसका सुन्दर और सजीव वर्णन जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण में वृषभध्वज स्वामी के संदर्भ में दिया है। केवल चेतन प्राणी ही नहीं अपितु अचेतन प्रकृति भी तीर्थंकरों की उपस्थिति से प्रभावित होती है। तीर्थकर, अन्तर्यामी व तीनों कालों के द्रष्टा होते हैं । प्रद्युम्नचरित काव्य में जन्म होने के तीन घण्टे पश्चात् ही अपहृत प्रद्युम्न के विषय में, नेमिनाथ स्वामी पहले ही बतला देते हैं कि वह 16 वर्ष पश्चात् स्वयं ही आ जाएगा और उसके आने पर प्रकृति में भी चारों तरफ अद्भुत घटनाएं घटेंगी। तीर्थंकरों की भांति मुनि भी पंचपरमेष्ठी माने गए हैं। वे भी अद्भुत दैविक शक्तियों से युक्त होते हैं। पद्मपुराण में किसी मुनि के 'चरणोदक' के द्वारा एक हंस की काया ही पलट गई। 'आदिपुराण' में बाहुबलि मुनि के आने मात्र से हो सर्वत्र बहार ही बहार छा गई। इसी प्रकार 'श्रीधर' मुनि के आगमन से चारों ओर कितना विचित्र, निराला और शान्त वातावरण व्याप्त हो गया, इसका सुन्दर वर्णन वीरनन्दी ने अपने चन्द्रप्रभचरित में दिया है। इतना ही नहीं, किसी पवित्रात्मा द्वारा किए गए कार्य भी विस्मयोत्पादक होते हैं। पद्मपुराण में, अपने बीमार पति 'नघुष' को सिंहिका द्वारा अपने पतिव्रत धर्म के कारण ही स्वस्थ करने का विवरण दिया गया है। रावण के घर में रहने के पश्चात् अपनी पवित्रता को प्रमाणित करने के लिए, पतिव्रता सीता द्वारा दी गई अग्नि-परीक्षा तो सर्वविदित ही है।" गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में श्रीकृष्ण के जेल में जन्म से लेकर उनके नन्द के घर पहुंचने तक का वर्णन सुंदरता से किया है। भावदेवसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित में, अपनी सत्यता की परीक्षा में सफल होने के बाद सब कुछ पूर्ववत् पाकर राजा हरिश्चन्द्र के विस्मयातिरेक का वर्णन 'सन्देहालंकार' द्वारा काव्यात्मक व प्रतिभाशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है । १. हरिवंशपुराण, १६/६१ । २. तस्य वक्षःस्थले तन प्रहारो मणिहारताम् । प्राप शीलवतो भक्तस्याहत्परमदैवते ॥ आदिपुराण, ४६/३२५ ३. उत्तरपुराण, ७४/३४४-४६ ४. कण्टकालग्नबालाग्राश्चमरीश्च मरीमजाः । नरवरैः स्वरहो व्याघ्राः सानुकम्पं व्यमोचयन् ॥ प्रस्नुवाना महाव्याघ्रीरुपेत्य मगशावकाः । स्वजनन्यास्थया स्वरं पीत्वा स्म मुखमासते ॥ आदिपुराण, १८/८३-८४ ५. आदिपुराण, १३/६. प्रद्य म्नचरित, ५/६४-६६ ७. पादोदकप्रभावेण शरीरं तस्य तत्क्षणम् । रत्नराशिसमं जातं परीतं चिवतेजसा ।। जातो हेमप्रभो पक्षी पादौ वैडूर्यसन्निभो। नानारत्नच्छविहश्चञ्चुर्विद्रुमविभ्रमा ॥ पद्मपुराण, ४१/४५-४६ ८. आदिपुराण, ३६/७४-१७६ ६. चन्द्रप्रभचरित, २/१३-२३ १०. पद्मपुराण, २२/१२४-१२६ ११. वही, १०५/२६-४६ १२. उत्तरपुराण, ७०/३६१-६७ १३. प्रतीहारमुखप्राप्तान विजिज्ञपयिषून् जनान् । दूरतो नमत: प्रेक्ष्य किमित्येतदचिन्तयत् ॥ किं नु स्वप्नो मया दृष्ट: किं वा मे मनसो भ्रमः । किं वा कस्याऽपि देवस्य चित्रमेतद् विजम्भितम् ।। पाश्र्वनाथचरित, ३/१०१०-११ ३२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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