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यद्यपि सभी उपमाएं दैनिक जीवन से ही ली गई हैं, लेकिन सबका अपना-अपना महत्त्व है। सबमें कुछ न कुछ नवीनता है और सभी धनदत्त के हादिक दुःख को प्रकट करती हैं। ये उपमाएं साहित्यिक और दार्शनिक भी नहीं हैं अतः एक साधारण व्यक्ति भी इन्हें समझकर आनन्द प्राप्त कर सकता है।
कभी-कभी जैन कवियों पर ब्राह्मण धर्म का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है जैसा कि अभयदेव सूरिकृत 'जयन्तविजय' से प्रमाणित होता है।
जैन कवियों ने करुण रस का बहुत ही सुन्दर, मार्मिक व हृदयस्पर्शी वर्णन किसी प्रिय व्यक्ति से वियोग हो जाने पर भी दिया है। जब रुक्मिणी के नवजात पुत्र प्रद्युम्न का अपहरण हो जाता है, तो उसके विलाप का वर्णन गुणभद्राचार्य ने अपने उत्तरपुराण में बहुत ही मर्मस्पर्शी व हृदयावर्जक ढंग से किया है।
प्रद्युम्नचरित में केवल रुक्मिणी ही नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण भी, जो ब्राह्मण-साहित्य में 'भगवान्' और जैन साहित्य में 'नारायण' माने गए हैं, अपने पुत्र के अपहरण पर फूट-फूटकर रोते हैं।'
उत्तरपुराण में अपनी पुत्रवधू सुतारा के अपहरण पर स्वयम्प्रभा का करुण क्रन्दन नवीन और मर्मस्पर्शी उपमाओं का प्रयोग कर गुणभद्राचार्य ने किया है। चार उपमाएं स्वयम्प्रभा के दुःख की चार अवस्थाओं की प्रतीति करवाती हैं। प्रथम उपमा स्वयम्प्रभा के दुःख और उसके परिणामस्वरूप उसकी क्रियाविहीनता, दूसरी उसके हृदय की अवर्णनीय पीड़ा और कान्तिविहीनता, तीसरी उसकी बेचैनीयुक्त भावविह्वलता और अन्तिम उसकी पूर्ण विवशता की तरफ संकेत करती है।
१६ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी प्रद्युम्न के न आने पर कवि उदयप्रभ सूरि ने धर्माभ्युदय महाकाव्य में रुक्मिणी के विलाप का सन्दर वर्णन किया है। यथास्थान अनुप्रास का प्रयोग वर्णन के सौन्दर्य में और भी वृद्धि कर देता है। 'वेष' और 'विष' में 'ए' का अभाव है। 'आभरण' और 'रण' में 'आ' की अनुपस्थिति है तथा 'भवन' और 'बन' में 'भ' नहीं है। अत: यह अनुप्रास स्वयं ही किसी अभाव (पुत्रवियोग) का संवे त करता है । शब्दों द्वारा ही अर्थ को प्रकट करने के कारण कवि निस्संदेह प्रशंसा का पात्र है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु पर बहुत ही सजीव व स्वाभाविक करुण वर्णन प्राप्त होते हैं। पद्मपुराण में अपने भाई लक्ष्मण की मूर्छा पर राम का विलाप बहुत ही हृदयस्पर्शी व करुणास्पद है। वह अपना सारा विवेक खो देते हैं और उन्मत्त लोगों की तरह विलाप करते हैं।
इसी प्रकार हरिवंशपुराण में अपने अनुज श्रीकृष्ण की मृत्यु के बारे में सुनकर बलदेव अपने कानों पर भी विश्वास नहीं कर पाते। जिनसेनाचार्य का यह वर्णन बहुत ही कारुणिक, यथार्थ, सजीव, स्वाभाविक व मर्मस्पर्शी है। वह भी पागलों की तरह इस प्रकार की क्रियाएं करते हैं जो पाठकों के हृदय को भी बींध देती हैं।
१. जनेऽप्यपुत्रस्य गतिर्न विद्यते क्षयं प्रयाति क्रमशश्च कीर्तनम् ।
इति प्रवाः खलु दु:सहः सतामपुत्रिणां भूप विलोप्य सम्पदाम् ।। जयन्तविजय,२/२४ २. सम्पत्तिर्वा चरित्रस्य दयाभावविवजिता । कार्याकार्यविचारेषु मन्दमन्देव शेमषी । मेघमालेव कालेन निर्गलज्जलसंचया । नावभासे गते प्राणे क्य भवेत्सुप्रभा तनोः ।। उत्तरपुराण, ७२/६३-६४ ३. प्रद्युम्नचरित, ५/११-१२ ४. तद्वातकिर्णनाद्दावपरिम्लानलतोपमा। निर्वाणाभ्यर्णदीपस्य शिखेव विगतप्रभा। श्रुतप्रावृधनध्वान कलहंसीव शोकिनी। स्याद्वाद्वादिविध्वस्त-दुःश्रुतिर्वाकुलाकला ।। उत्तरपुराण, ६२/२५८-२५६ ५. अशानं व्यसनं वेषो विषमाभरणम् रणम् ।
भवनं च वनं जातं विना वत्सेन मेऽधुना ।। धर्माभ्युदय, १३/१४४ ६. पद्मपुराण, ११६-११८ सर्ग ७. माष्टि मार्दवगुणेन पाणिना सन्मुखं मुखमुदीक्षते मुदा ।
लेढि जिघ्रति विमूढधीर्वचः श्रोतुमिच्छति धिगारममूढताम् ॥ हरिवंशपुराण, ६३/२२ ८. हरिवंपुशराण, ६३ सर्ग
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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