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________________ जैन महाकाव्यों में कई विस्तृत वर्णन कवि द्वारा परिहास के लिए न देकर पूर्ण गाम्भीर्य से दिए गए हैं परन्तु आधुनिक पाठक इन विवरणों को केवल कवि की कल्पनामात्र मानकर हास्यपूर्ण समझ सकता है। क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां और समय सर्वथा भिन्न है । उदाहरणार्थ, पद्मपुराण में कुम्भकर्ण की निद्रा का वर्णन' और हरिवंशपुराण में गौतम और कालोदधि द्वीप के निवासियों का वर्णन । वास्तव में ये काव्य जैन कवियों ने जैन दर्शन के गूढ़ तत्त्वों को, सरल और सुबोध भाषा में, जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए ही लिखे थे । परिणामस्वरूप हास-परिहास का प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी कवियों ने यत्र-तत्र हास्य रस का समावेश करके अपने मौलिक ज्ञान और काव्य-प्रतिभा का प्रमाण दिया है । करुण रस जैन संस्कृत महाकाव्यों में करुण रस अन्य रसों की अपेक्षा कहीं अधिक स्वाभाविक व यथार्थ है ऐसा प्रतीत होता है कि इन कवियों के कण्ठ से यह करुण वाणी स्वयं अनायास ही फूट पड़ी। इसका कारण सम्भवतः यह भी हो सकता है कि जैन धर्म भी, बौद्ध धर्म के समान इस संसार के विषय-भोगों को दुःखमय ही मानता है । ब्राह्मण और इन काव्यों में पुत्राभाव से उत्पन्न अनल्प दुःखों का वर्णन कवियों द्वारा अत्यन्त विस्तृत, प्रभावशाली और काव्यात्मक ढंग से किया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन में संतानाभाव कभी भी कष्टदायक नहीं समझा गया है। लेकिन जैन कवियों ने दर्शन की इस भावना की उपेक्षा की है । परन्तु पुराणों के लेखक इसके अपवाद हैं। इसका कारण पुराणों की रूढ़िवादिता ही है जो जैन दर्शन से अधिक सामीप्य रखती है। चन्द्रप्रभचरित में रानी श्रीकान्ता पुत्र न होने के कारण स्वयं को ही दोषी मानती है ।" उसकी मानसिक व्यथा की प्रतीति कवि बीरनन्दि ने फलरहित लता वर्णन के द्वारा कराई है। धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने एक पुत्र का महत्त्व सुन्दर, यथार्थ, प्रभावोत्पादक और सजीव उपमाओं द्वारा निरूपित किया है। यहां चार अलग-अलग उपमान, जो चार अलग-अलग उपमेय में प्राप्त होते हैं, उन सबको एक पुत्र के अनिवार्य गुण ( प्रताप, लक्ष्मी, बल, कान्ति) बतलाकर यह 'मालोपमा' और भी प्रभावशाली व हृदयस्पर्शी कर दी गई है। इसका व्यंग्यार्थ यह है कि उपरिलिखित चार गुणों से युक्त पुत्ररहित कुल उतना ही दुर्भाग्यशाली है जितना कि ऊपर दी गई चारों घटनाओं का एक साथ ही घटित हो जाना। जयन्तविजय महाकाव्य में राजा विक्रम की दृष्टि में पुत्र ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।' कवि ने बहुत ही आकर्षक ढंग से पुवरहित कुल की तुलना अग्नियुक्त वृक्ष से करके यह स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार अग्नियुक्त वृक्ष दूर से व बाह्य रूप से चाहे कितना भी फल, फूल, पत्तों आदि से युक्त क्यों न हो, उसका विनाश निश्चित ही है, इसी प्रकार पुत्ररहित कुल की सुख सम्पत्ति एवं धन-धान्य-ऐश्वर्यादि से युक्त होने पर भी समाप्ति निश्चित ही है । इसी प्रकार मुनिसुव्रतमहाकाव्य में पुत्राभाव में रानी पद्मावती की पीड़ा कई उपमाओं द्वारा प्रकट की गई है। सभी उपमाएं रानी की व्यथा का मनोवैज्ञानिक, स्वाभाविक व यथार्थवादी चित्रण करती हैं । शान्तिनाथचरित में कवि विनयचन्द्र सूरि ने भी पुत्राभाव में धनदत्त की मनोव्यथा का बहुत ही चित्ताकर्षक वर्णन किया है 15 १. पद्मपुराण, २/२३२-२३६ २. हरिवंशपुराण, ५ / ४७१-४७६ ३. दुःखमेव सर्व विवेकिनः । योगसूत्र, २ / १५ ४. या मद्विधाः पुनरसंचितपूर्व पुण्याः पुष्पं सदा फलविवर्जितमुद्वन्ति । ताः सर्वलोकपरिनिन्दितजन्मलाभा वन्ध्या लता इव भृशं न विभान्ति लोके ॥ चन्द्रप्रभचरित, ३/३१ ५. नभो दिनेशेन नयेन विक्रमो वनं मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना । प्रतापलक्ष्मीबलकान्तिशालिना विना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ।। धर्मशर्माभ्युदय २/ ७३ ६. अनन्यसाधारण वैभवोद्भवैः सुखैः सदा दुर्ललितोऽपि मानवः । अपुत्रजन्मप्रभवाभिबाधितो न कोटराग्निविटपीव नन्दति । जयन्त विजय, २ / २२ ७. आपुष्पितापि विकलेव रसालयष्टिः सेनेव नायकगतापि जयेन शून्या । काले स्थितापि घनराजिरवर्षणैव मिथ्या दधामि हत कुक्षिमदृष्टतोका । मुनिसुव्रत, ३ / २ ८. नेपथ्यजातमखिलं तिलकं विनेव शीलं विनेव विनयं सुभगं कलतम् । प्रासादसर्जनमिदं कलशं विनेव काव्य सुबद्धमपि चारुरसं विनेव || पुत्र विना न भवनं सुषमां दधाति चन्द्रं विनेव गगनं समुदग्रतारम् । सिहं विनेव विपिन विलसत्प्रतापं क्षेत्र स्वरूप कलितं पुरुषं विनैव || शान्तिनाथचरित, ४/७०-७१ जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only १७ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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