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रविषेणाचार्य ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने विप्रलम्भ शृंगार की दसों अवस्थाओं का काव्यात्मक वर्णन पवंजय की विरही अवस्था में किया है जबकि वह अपनी प्रिया अंजना से नहीं मिल पाता। आदिपुराण में जब श्रीमती को अपने पूर्वभव के पति ललितांग का स्मरण होता है तो उस समय का वर्णन कवि जिनसेन द्वारा मौलिक तथा प्रसंगानुकूल बहुत ही सुन्दर उत्प्रेक्षा द्वारा किया गया है।
नेमि निर्वाण महाकाव्य के रचयिता वाग्भट्ट का नेमिनाथ के अलग होने पर राजीमती की विरहावस्था का वर्णन बहुत ही हृदयस्पर्शी, मार्मिक व यथार्थ है । 'मूर्च्छना' शब्द पर श्लेष का प्रयोग वर्णन में चार चांद लगा देता है।
अपने धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि, धनवती के अपने प्रियतम 'धन' से वियोग-वर्णन में अद्वैतवाद से प्रभावित हआ परिलक्षित होता है।
वस्तुपाल मंत्री की मृत्यु का प्रतीकात्मक वर्णन वसन्तविलास महाकाव्य के रचयिता बालचन्द्र सूरि द्वारा अनुपम, मौलिक व काव्यात्मक ढंग से किया गया है। प्रतीकात्मक वर्णन करते हुए कवि कहता है कि किस प्रकार धर्म की पुत्री सद्गति वस्तुपाल की कीर्ति को स्वर्ग में गाये जाते हुए देखकर कामदेव के बाणों द्वारा पीड़ित की जाती है। यहां पर कवि वास्तव में श्रेय का पात्र है कि शार्दूल-विक्रीडित जैसे लम्बे छन्द का प्रयोग करके भी भाषा में ओज, माधुर्य व प्रसाद गुण है। इस प्रकार का वर्णन इतनी रोचकता से केवल इसी कवि द्वारा किया गया है।
धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि हरिश्चन्द्र ने मानाख्य विप्रलम्भ एक दूती के कथन द्वारा ध्वनित किया है । दूती क्रोधित नायक को शान्त करने के लिए नायिका की विरह-अवस्था का वर्णन करती है। रमते, स्मयते, भाषते, स्वपिति, अत्ति, वेत्ति और स्मरति में लट् लकार का प्रयोग मधुर व संगीतमय है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'अपहरण' से उत्पन्न विप्रलम्भ श्रृंगार के अनेकों काव्यात्मक उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। जब रावण सीता का अपहरण कर लेता है तो राम का विलाप, जहां वह लताओं, पर्वतों, पशु-पक्षियों, वायु और अन्य वस्तुओं से सीता के बारे में पूछते हैं, बहुत ही करुण व हृदयस्पर्शी है। मनुष्य का तो कहना ही क्या, पत्थर भी उससे द्रवित हो जाए। विभिन्न प्राकृतिक वस्तुएं नायक को नायिका के वियोग में उसके अंग-प्रत्यंग के आंशिक सौन्दर्य की याद दिलाकर विरहाग्नि को बढ़ा तो देती हैं, परन्तु कोई भी एक वस्तु अथवा जीव उसे ऐसा नहीं मिलता जो नायिका के सम्पूर्ण सौन्दर्य का प्रतीक बनकर, नायक की वियोग-पीड़ा शान्त कर सके। जैन कवियों ने कभी-कभी नायक नायिकाओं के अंगों का सौन्दर्य वर्णन करके भी शृंगार रस को ध्वनित किया है। कवि हरिश्चन्द्र ने अपने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में रानी सुव्रता के मुख की सुन्दरता का चित्रण एक नवीन और काव्यमयी कल्पना की सहायता से किया है।
इसी प्रकार रानी प्रभावती की वाणी, मुख, रूप और नेत्रों का आलंकारिक वर्णन भावदेवसूरि द्वारा यथासंख्यालंकार का प्रयोग कर किया गया है।"
आदिपुराण में रानी सुलोचना के मुख-सौन्दर्य को 'व्यतिरेकालंकार' द्वारा कमल और चन्द्रमा से भी कहीं बढ़कर बतलाया गया है।" १. पद्मपुराण, १५/६५-१०० २. इमेऽथ बिन्दवोऽजस्र निर्यान्ति मम लोचनात् ।
मदुःखमक्षमा द्रष्टुं तमन्वेष्टुमिवोद्यताः ।। आदिपुराण, ६/१६५ ३. स्मृत्वा स्मृत्वा ने मिमुद्गातुकामा कामोद्रकाद्वाद्यविद्याप्रगल्भा।
सकूजन्त्याः केवल नो विपञ्च्याश्चक्रे बाला मूर्च्छनामात्मनोऽपि । नेमिनिर्वाण, ११/७ ४. त्व देकतानचित्तेयमपि व्यापारितेन्द्रिया।
त्वया व्याप्त जगद् वेति योगिनीव परात्मना ।। धर्माभ्युदय, १०/३६ ५. वसन्त विलास, १४/१६/३१ ६. न रमते स्मयते न न भाषते स्वपिति नात्ति न वेत्ति न किंचन ।
सुभग केवलमस्मितलोचना स्मरति सा रतिसारगुणस्य ते ॥ धर्मशर्माभ्युदय, ११/४२ ७. पद्मपुराण, ४४११६-१३८ ८. पद्मपुराण, ४८/१४-१८ . ६. कपोलहेतोः खलु लोलचक्षुपो विधिव्यंधात्पूर्ण सुधाकर द्विधा ।
विलोक्यतामस्य तथाहि लाञ्छनच्छलेन पश्चात्कृत्सीवनव्रणम् ॥ धर्मशर्माभ्युदय, २/५० १०. तद्वाक्यमुखरूपाऽजिता इव ययुध वम् ।
सुधा पाताल इन्दुः खे दिवि रम्भा जलेऽम्बुजम् ।। भावदेवमूरिकृत पार्श्वनाथचरितम्, ५/१५७ ११. राताविन्दुर्दिवाम्भोज क्षयीन्दुग्लानिवारजम् ।
पूर्णमेव विकास्येव तद्वक्त्र भात्यहर्दिवम् ।। आदिपुराण, ४३/१६४
जैन साहित्यानुशीलन
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