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________________ अन्य पात्रों का भी प्रेम-वर्णन बहुत मर्यादित एवं सुरुचिपूर्ण है। दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में सर्वप्रथम धनञ्जय ने अपने द्विसन्धान महाकाव्य में संभोग शृंगार का वर्णन करने के लिए पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, चन्द्रोदय, चुम्बन, आलिंगन, अधरपान और अन्य प्रेम-क्रीड़ाओं का तीन सर्गों में विस्तृत वर्णन किया है। मद्यपान जो जैन दर्शन में व्यसन माना गया है, उसका भी संकेत यहां प्राप्त होता है। यद्यपि चन्द्रप्रभचरित के रचयिता वीरनन्दि ने इस परम्परागत वर्णन को प्रसंगानुकल बनाने का प्रयत्न किया है लेकिन तत्पश्चात् यह भी परम्परागत ही हो गया है। धर्मशर्माभ्युदय के लेखक हरिश्चन्द्र ने तो २१ में से ५ सर्गों में परम्परागत शृंगार रस का अनावश्यक रूप से विस्तृत वर्णन किया है। यहां तक कि ऊर्ध्व और अधोवस्त्रों के उतारने का वर्णन भी बिना किसी हिचकिचाहट के, बेरोकटोक किया गया है और मद्यपान का वर्णन तो बहुतायत से प्राप्त होता है । सम्भवतः इस विषय में जैन कवि अजैन कवियों द्वारा प्रभावित हुए हों। और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार का अमर्यादित, उच्छृखल व अश्लील वर्णन लेखकों ने शायद जनसाधारण में शृंगार के प्रति अरुचि उत्पन्न करने के लिए किया हो, जो प्रायः जैन दर्शन में इच्छित है। इसी प्रकार के वर्णन वादि. राजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, वाग्भट्ट के नेमिनिर्वाण, बालचन्द्र सूरि के वसन्तविलास में भी प्राप्त होते हैं । इसी कारण इन काव्यों का कथानक भी अवरुद्ध हो गया है। यह एक ध्यान देने योग्य बात है कि इन कवियों ने भी किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम का वर्णन सीमागत, आकर्षक, रोचक और शिष्ट भाषा में ही किया है। केवल अर्हद्दास ने ही अपने मुनि सुव्रत महाकाव्य में प्रेम-प्रसंगों में गीत, नृत्य और वीणावादन का भी निर्देश किया है। तीसरी श्रेणी के महाकाव्य के रचयिता भी प्रेम-प्रसंगों का विस्तृत और परम्परागत वर्णन करने के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने संभोग शृंगार का समुदाय रूप में वर्णन नहीं किया है। जहां भी इसका उल्लेख है, वह औचित्यपूर्ण और प्रसंग के अनुकूल ही है, अतः कथानक बिना किसी बाधा के नदी-प्रवाह रूप में प्रवाहित होता है। विनयचन्द्र सूरि ने अपने मल्लिनाथचरित में पद्मलोचना का अपने प्रेमी रत्नचन्द्र के प्रति प्रेम का आकर्षक ढंग से व्यंग्यात्मक वर्णन एक सुन्दर उपमा द्वारा किया है। विप्रलम्भ श्रृंगार जैन संस्कृत महाकाव्यों में केवल करुणाख्य विप्रलम्भ शृंगार को छोड़कर पूर्व रागाख्य, मानाख्य और प्रवासाख्य तीनों ही प्रकार का विप्रलम्भ शृंगार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त इनमें विप्रलम्भ शृंगार का एक अन्य प्रकार 'अपहरण' के कारण भी पर्याप्त रूप में मिलता है, लेकिन इस प्रकार के विप्रलम्भ का निर्देश किसी भी काव्यशास्त्री द्वारा नहीं किया गया है। __यह उल्लेखनीय है कि विप्रलम्भ शृंगार महाकाव्यों की अपेक्षा पुराणों में अधिक प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी है। पद्मपुराण के लेखक रविषेणाचार्य तो पूर्वरागाख्य विप्रलम्भ के चित्रण में अद्वितीय हैं । जब हरिश्चन्द्र नागवती को देख लेने पर उसे प्राप्त नहीं कर पाता तो उसे कहीं भी शान्ति नहीं मिलती। रविषेणाचार्य ने बड़ी सुन्दरता से उसकी विरही-अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि कमल भी उसे दावाग्नि के समान और चन्द्रकिरण भी उसे वज्रसूची के समान प्रतीत होते थे। १. पद्मपुराण ७/१६७-१६८; आदिपुराण ७/२४६-२५०; उत्तरपुराण ५८/६४ २. द्विसंधान महाकाव्य, १५ से १७ सर्ग ३. वही, १७/५८-५६ ४. चन्द्रप्रभचरित, ८ से १० सर्ग५. धर्मशर्माभ्युदय, ११ मे १५ सर्ग ६. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ६ से ८ सर्ग ७. नेमिनिर्वाण, ६ से १० सर्ग ८. वसन्तविलास, ६ से ८ सर्ग है. अगायदेषा स ततान तानमनत्यदेषा स तताड तालम् । अवादयदल्लकिकामथैषा स वल्लकीवानुजगी द्वितीया ।। मुनिसुव्रत, २/२७ १०. चन्द्राश्मप्रतिमेवास्य सुधांशोरिख दर्शनात् । सिस्विदे सर्वतः पद्या निश्छद्मप्रेममन्दिरम् ।। आलस्यचञ्चलर्लज्जानिर्जितर्नयनोत्पलैः । पपौ पचा महः प्रेमरसं नालैरिवोच्चकैः ।। मल्लिनाथचरित, १/१५०-१५१ ११. दावाग्निसदृशास्तेन पद्मखण्डा निरीक्षिताः । वजसूचीसमास्तस्य बभूवुश्चन्द्ररश्मयः ।। पद्मपुराण, ८/३११ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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