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________________ ब्राह्मण पंडितों की सेवाएं आमन्त्रित की किन्तु साम्प्रदायिक द्वेष के कारण पंडितों ने ग्रन्थ का सार बताने से अस्वीकार कर दिया। तदुपरान्त विल्फ्रेड महोदय ने स्वयं संस्कृत भाषा का अभ्यास किया और 'त्रिलोक दर्पण' पर एक सारगभित निबन्ध लिखा जो किसी भी विदेशी लेखक का जैनधर्म की कृति पर सम्भवतया सर्वप्रथम निबन्ध है। काशी में जैनधर्म विरोधी वातावरण को प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करते हुए राष्ट्रभाषा हिन्दी के महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ३६ पद्यों में 'जैन-कुतूहल' नामक काव्य की रचना करके ब्राह्मण एवं जैन समाज में परस्पर सद्भाव स्थापित करने पर बल दिया था। भारतीय साहित्य, भाषा एवं लेखन कला के समग्र इतिहास को प्रस्तुत करने के लिए जैन साधकों द्वारा रचित विशाल साहित्य का पुनर्मुल्यांकन अत्यावश्यक है। जैन धर्म की विशाल ग्रन्थ राशि की अब तक धार्मिक एवं साम्प्रदायिक साहित्य कहकर घोर उपेक्षा की गई है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय भाषाओं विशेषतः हिन्दी भाषा के प्राचीन स्वरूप को जानकारी के लिए जैन शास्त्र भंडारों में प्रतिष्ठित साहित्य के अध्ययन पर बल दिया है। उन्होंने 'मेरी जीवन यात्रा भाग-४' में अनुसन्धाताओं का मार्ग-दर्शन करते हुए लिखा है"मेरी धारणा है, सभी जैन बस्तियों में अनिवार्य से रहने वाले पुस्तक भण्डारों के हस्तलिखित ग्रंथों में हिन्दी गद्य-पद्य की रचनाओं के मिलने की सम्भावना है, अपभ्रश के भी अज्ञात ग्रंथ वहां हो सकते हैं। यहां के लक्ष्मी पुस्तकालय में साढ़े चार हजार ग्रंथों में से अधिकांश हस्तलिखित हैं।xx'खड़ी बोली के अपने क्षेत्र मेरठ और अम्बाला कमिश्नरी तथा बिजनौर जिले की जैन-बस्तियों के पुस्तक-भंडारों से हिन्दी के प्राचीन गद्य-पद्य मिलने की सम्भावना है। बहुत सम्भव है, वह खड़ी बोली के साहित्य को १३वीं-१४वीं शताब्दी तक ले जाएं। बौद्ध और जैन लोकभाषा को अपने धर्म के प्रचार का सबसे बड़ा साधन मानते रहे। पालि, प्राकृत और अपभ्रश की इतनी ग्रंथ राशि जो मिली है, वह इसी प्रेम के कारण । अपभ्रश के बाद जब खड़ी बोली कुरु-जांगल के जिलों में आ उपस्थित हुई, तो उन्होंने उसमें भी धार्मिक ग्रन्थ लिखे होंगे।" भारतवर्ष के जैन समाज के लिए यह गौरव का विषय है कि जैन साधकों द्वारा रचित अनेक दुर्लभ पांडुलिपियां आज देश-विदेश के संग्रहालयों एवं पुस्तक भण्डारों की शोभा बढ़ा रही हैं। रूसी विद्वान ग० बोंदार्ग-लेविन तथा अ० विगासिन ने 'भारत की छवि' नामक पुस्तक में लेनिनग्राद स्थित राजकीय पब्लिक लाइब्रेरी में १४० जैन पांडुलिपियों की विद्यमानता का उल्लेख किया है । इसी प्रकार जैन विद्या विशारद श्री छोटेलाल जैन ने देश-विदेश के संग्रहालयों में उपलब्ध जैन शास्त्रों के विषय में ज्ञानोपयोगी जानकारी दी है। वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित जैन बिबलियोग्राफी (भाग एक) की तालिका संख्या ५० से १४४ के अन्तर्गत देश-विदेश में उपलब्ध हजारों महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियों का साधिकार उल्लेख किया गया है। वस्तुत: भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास के निरूपण के लिए जैन धर्म ग्रन्थों में उपलब्ध विपुल सामग्री की उपादेयता अब निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाने लगी है। हमारे महान् देश के गौरवमय अतीत को उद्घाटित करने के लिए जैन साहित्य की व्यापक पृष्ठभूमि पर विचार-विमर्श करना आज के सन्दर्भ में अत्यन्त आवश्यक है। प्रस्तुत 'जैन साहित्यानुशीलन' खंड में इस दृष्टि से जिज्ञासुओं को रोचक जानकारी मिलेगी। इस खंड के सम्पादन में डॉ० पुष्पा गुप्ता का भरपूर सहयोग मिला है। ३ सी-१४ नई रोहतक रोड, करोल बाग़, नई दिल्ली-११०००५ -डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त सुमतप्रसाद जैन आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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